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8 कर्ममुक्ति में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ ® २०५ 8
लेता है, उनसे रक्षा की कल्पना करता है। रोग या आतंक आ घेरता है, तब वह धन, साधन और परिवार को अपना त्राण और शरणदाता मानता है, परन्तु सिवाय आत्मा के या आत्म-धर्म (ज्ञानादि रत्नत्रयरूप) के कोई भी किसी को शरण
और त्राण देने में समर्थ नहीं होते। अगर कोई भी किसी को शरण एवं त्राण देने में समर्थ होता तो अनाथी मुनि को चक्षु की परम वेदना से कोई भी क्यों नहीं मुक्त कर सका? कौशाम्बी नगरी के निवासी उनके पिता अपार धन-सम्पत्ति से समृद्ध थे, किन्तु दारुण चक्षुपीड़ा से उनके पिता, माता, बहन, पत्नी आदि कोई भी रक्षण न कर सके। अंग-अंग में भयंकर पीड़ा थी। जड़ी-बूटी, मूल, मंत्र, तंत्र, विद्या, विविध चिकित्सा आदि एक से एक बढ़कर उपाय किये गए। किन्तु कोई भी उन्हें उस दुःख से मुक्त न कर सके।
अतः आँखों में उत्पन्न हुई बाह्य उपायों, साधनों या व्यक्तियों द्वारा शान्त होनी अशक्य, असह्य वेदना के समय अनाथी अशरणभावना का अनुप्रेक्षण (चिन्तन) करने लगे-माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी आदि तथा धन-सम्पत्ति आदि समस्त सांसारिक साधन जब मेरी बाह्य (शारीरिक) वेदना को शान्त करने में समर्थ नहीं, तब मेरी आत्मिक वेदना को शान्त करने में कैसे समर्थ हो सकते हैं ? इस दृष्टि से मेरी अनाथ (अशरण्य) बनी हुई आत्मा की अनाथता (अशरणता) दूर करने और उसे सनाथ बनाने के लिए मेरी ज्ञानादिस्वरूप शुद्ध आत्मा ही समर्थ है। इस प्रकार अशरणभावना की सघन अनुप्रेक्षा से संसारविरक्त होकर उन्होंने शान्त, दान्त,
१. (क) 'जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भा. ४' से भावांश ग्रहण, बोल ८१२, पृ. ३५८ (ख) तत्थ भवे किं सरणं, जत्थ सुरिंदाण दीसए विलओ।
हरि-हर-बंभादीया कालेण कवलिया जत्थ।।२३।। अप्पाणं किं चवंतं जइ सक्कदि रक्खिदुं सुरिंदो वि। तो किं छंडदि सग्गं, सव्वुत्तम-भोय-संजुत्त।।२९॥ सिंहस्य कमे पडिदं सारंगं, जहण रक्खदे को वि। तह मिच्चुणा य गहियं, जीवं पि ण रक्खदे को वि।।२४।। जइ देवो विय रक्खइ, मंतो तंतोय खेत्तपालोय। मियमाणं पि मणुस्सं, तो मणुया अक्खया होति।।२५।। अइबलियो वि रउद्दो मरणविहीणो ण दीसए को वि। रखिज्जंतो विसया रक्खपयारेहिं विविहेहि।।२६।। एवं पेच्छंतो विहु गह-भूय-पिसाय-जोइणी-जखं ।
सरणं मण्णइ मूढो सुगाढ-मिच्छत्त भावादो॥२७॥ -कार्तिकेयानुप्रेक्षा २३, २९, २४-२७ ___ (ग) 'शान्तसुधारस, अशरणभावना,संकेतिका नं. २' से भाव ग्रहण, पृ.८ २. 'जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भा. ४' से भावांश ग्रहण, पृ. ३५८-३५९