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________________ ॐ २०४ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ ® भाई, स्त्री आदि स्वजनों तथा मित्रों से इन सब आफतों के समय सहायता की अपेक्षा करता है। सुखपूर्वक अपना और अपने माने हुए परिवार का जीवन व्यतीत हो, इसलिए दुःख सहकर भी धन, मकान, जमीन-जायदाद तथा अन्यान्य सुख के साधन जुटाता है। परन्तु क्या वह धन और साधन बीमारी, आतंक या मृत्यु की घड़ी आ पहुँचने पर उसकी सुरक्षा कर सकते हैं ? उसे शरण और त्राण दे सकते हैं ? पारिवारिक जन या स्नेही जन व्याधि के समय उसे डॉक्टर, वैद्य चिकित्सा या उपचार के साधन सुलभ कराने में निमित्त बन सकते हैं। उसे आश्वासन दे सकते हैं। यदि उसके अशुभ कर्म का उदय हो तो कितने ही डॉक्टर, दवाइयाँ या धन-सम्पत्ति, स्वजन रहें, उसकी सुरक्षा नहीं कर सकते, उसकी बीमारी नहीं मिटा सकते। आत्मा के सिवाय कोई भी शरण या त्राण नहीं दे सकता ___संसार में लोग हरि, हर और ब्रह्मा आदि को शरण रूप मानते हैं, किन्तु उनकी शरण लेने से क्या अपनी रक्षा हो सकती है? 'कार्तिकयानुप्रेक्षा' में कहा गया है-सुरेन्द्र, हरि, हर, ब्रह्मा आदि को जिस संसार में आयुष्य-क्षय होने पर काल-कवलित होते देखा गया है देवेन्द्र यदि अपनी रक्षा करने में, स्वयं को च्युत (मृत) होने से रोकने में समर्थ होता तो सर्वोत्तम भोगों से युक्त स्वर्ग निवास क्यों छोड़ता? अतः इस संसार में कौन शरणदाता हो सकता है? जंगल में सिंह के पैरों से दबोचे हुए हिरण की कौन रक्षा कर सकता है ? इसी प्रकार इस संसार में काल के द्वारा गृहीत जीव की कौन रक्षा कर सकता है ? मृत्यु जब आती है, तब कोई भी देवी-देव, मंत्र, तंत्र, यंत्र, क्षेत्रपाल या कोई भी शक्तिमान बलिष्ठ व्यक्ति या औषध-उपचार, जिन्हें व्यक्ति रक्षक मानता है, रक्षा नहीं कर सकते। यदि इस प्रकार से ये सब रक्षाकर्ता हो जाएँ तो संसार में सभी मनुष्य अजर-अमर-अक्षय हो जाएँ, कोई मरे ही नहीं ! इस संसार में जिन्हें अतिबलिष्ठ और अतिरौद्र समझा जाता है, जो कोट, किला, शस्त्र-अस्त्र, सैन्य, अंगरक्षक आदि अनेक रक्षणोपाय करते हैं, वे भी मृत्यु से बच नहीं पाते। मृत्यु के आगे सभी उपाय विफल हो जाते हैं। वे स्वयं अशरण हैं तो किसको शरण दे सकते हैं ? जब मृत्यु सिर पर मँडराती है, तब छह-छह खण्ड पर शासन करने वाले राजा, महाराजा, चक्रवर्ती तथा बड़े से बड़े सत्ताधीश या अधिकारी शरण-परित्राण पाने हेतु कातरदृष्टि से चारों ओर झाँकते हैं, दूसरों से सहायता की अपेक्षा रखते हैं। पर उस समय उन्हें शरण और परित्राण देने वाला या उनके पूर्वोक्त दुःखों को बँटाने वाला कोई. नहीं होता। इस प्रकार प्रत्यक्षरूप से अशरणता को जानते-देखते हुए भी मूढ़ मानव तीव्र मिथ्यात्वभाव के वशीभूत होकर ग्रह, भूत, पिशाच, योगिनी, यक्ष आदि की शरण
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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