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________________ ॐ २०६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ * निरारम्भ, ज्ञानादिभय शुद्ध आत्मा की शरण में जाने का संकल्प किया। वे समस्त भोगों तथा सांसारिक वासनाओं, कामनाओं की अपेक्षा को त्यागकर संयमी बन गए। अनाथी मुनि ने आत्मा की शरण कैसे स्वीकार की ? मण्डिकुक्ष उद्यान में शान्त बैठे हुए मुनि (अनाथी) के तेजस्वी रूप एवं कान्ति को देखकर प्रभावित हुए मगध नरेश श्रेणिक ने उनसे तरुण वय में दीक्षा ग्रहण करने का कारण पूछा तो उन्होंने दो टूक उत्तर दिया-“राजन् ! मैं अनाथ था !" आश्चर्याविन्त होकर राजा श्रेणिक ने उनका नाथ बनने और उन्हें सब प्रकार की सुख-सुविधा देने की भावना प्रकट की। इस पर अनाथी मुनि ने कहा-"राजन ! आप स्वयं अनाथ हो ! आप स्वयं अनाथ होकर मेरे नाथ (शरणदाता) कैसे हो सकेंगे?" अन्त में निश्चय करके उन्होंने बताया कि जगत् का कोई भी आत्मबाह्य पदार्थ शरण देने में समर्थ नहीं है। इसलिए मैंने आत्म-धर्म की शरण ली।" आगे अनाथी मुनि ने अनाथता और सनाथता का विस्तार से रहस्य समझाया और स्पष्ट रूप से बताया कि संसार के अधिकांश जीव भ्रमवश किस-किस प्रकार से अनाथता (अशरणता) को जान-बूझकर ओढ़े हुए हैं ?? इसीलिए ‘धम्मपद' में कहा गया-“अत्ता हि अत्तनो नाथो, कोहि नाथो परो सिया।"-आत्मा ही आत्मा का नाथ है, स्वामी है, शरण्य है, दूसरा कौन नाथ हो सकता है ? अनाथी मुनि ने जिस दिन मालिक (नाथ) को खोजा, उस दिन उन्होंने जाना कि नाथ तो भीतर विराजमान है। उस दिन से पर-पदार्थों और दूसरे व्यक्तियों से त्राण और शरण की अपेक्षा छोड़ दी। उन्होंने भगवान महावीर का यह शरणसूत्र भलीभाँति अपना लिया-"धम्म सरणं पवज्जामि।" अर्थात् मैं आत्मा के शुद्ध धर्म = स्वभाव की शरण स्वीकार करता हूँ, ग्रहण करता हूँ। साथ ही उन्होंने आगम-निर्दिष्ट चार शरणों को आत्मा की स्व-रूप-रमणता के सन्दर्भ में इस प्रकार ग्रहण किया-आत्मा का शुद्ध स्वरूप है-अर्हत्, आत्मा का सिद्ध (सर्वकर्ममुक्त) स्वरूप है-सिद्ध, आत्मा का साधकस्वरूप है-साधु और आत्मा का चैतन्यमय-ज्ञानमय शुद्ध स्वभाव हैधर्म। ये चारों ही मेरे लिए शरणरूप हैं।२ १. (क) 'जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भा. ४' से भाव ग्रहण (ख) देखें-उत्तराध्ययनसूत्र का २0वाँ महानिर्ग्रन्थीय अध्ययन २. (क) धम्मपद (ख) केवलिपण्णत्तं धम्म सरणं पवज्जामि। -आवश्यकसूत्र धम्मं सरणं गच्छामि। -बौद्धधर्मसूत्र (ग) चत्तारि सरणं पवज्जामि-अरिहंतं सरणं पवज्जामि, सिद्धं सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्म सरंणं पवज्जामि। -आवश्यकसूत्र में चतुःशरणसूत्र
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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