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________________ ॐ २००. कर्मविज्ञान : भाग ६ * सुशोभित किया जाता है, उसी प्रकार आभूषणों से ही हमारे द्वारा इस शरीर को सुशोभित किया जाता है। इसका असली स्वरूप कुछ और ही है। वह मल-मूत्रादि अशुचि पदार्थों का भण्डार है। अनित्य है, विनश्वर है। जिस प्रकार ऊसर भूमि अपने पर पड़ी हुई जल-बिन्दुओं को क्षार बना देती है, उसी प्रकार विलेपन किये हुए कपूर, केसर, कस्तूरी, चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्यों को यह शरीर दूषित कर देता है। इस शरीर की कितनी ही रक्षा की जाए, यह एक दिन अवश्य ही नष्ट हो जाएगा। वे तपोधनी मुनीश्वर धन्य हैं, जो इस शरीर की अनित्यता को जानकर सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष फलदायक तप द्वारा स्वयमेव इसे कृश और जीर्ण कर डालते हैं। ऐसा करके वे आत्मा को अनन्त चतुष्टयरूपी आभूषणों से सुसज्जित कर लेते हैं। इस प्रकार तीव्र संवेगपूर्वक अनित्यभावना की अनुप्रेक्षा करते-करते भरत सम्राट् क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हो गए। चढ़ते परिणामों (आत्म-भावों) की प्रबलता से चार घातिकर्मों का क्षय करके उन्होंने केवलज्ञान-केवलदर्शन उपार्जित कर लिये. और अन्त में समस्त कर्मों से रहित होकर वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा बन गए। निश्चयनय की दृष्टि से अनित्यानुप्रेक्षा का चिन्तन ____ 'बारस अणुवेक्खा' में भरत चक्री की इसी अनित्यानुप्रेक्षा. का समर्थन करते हुए कहा गया है-"शुद्ध निश्चयनय से (शुद्ध) आत्मा के स्वरूप का सदैव इस प्रकार चिन्तन (अनुप्रेक्षण) करना चाहिए कि यह देव, असुर, मनुष्य और राजा आदि के विकल्पों से रहित है, अर्थात् इसमें (अनित्य) देवादिक भेद नहीं हैं, यह ज्ञानस्वरूप मात्र है और शाश्वत (सदा स्थिर) है।" 'बृहद्रव्यसंग्रह टीका' के अनुसार-"." धन, स्त्री आदि सब अनित्य हैं, इस प्रकार की अनित्यभावनायुक्त पुरुष के उक्त पदार्थों का वियोग होने पर भी झूठे भोजन की तरह उन पर ममत्व नहीं होता और उनमें ममत्व न होने से अविनाशी निज परमात्मा (शुद्ध आत्मा) को ही भेद और अभेद रत्नत्रय की भावना से भाता (अनुप्रेक्षण करता) है। वह जैसे अविनश्वर आत्मा को भाता है, वैसे ही अक्षय, अनन्त सुख स्वभाव वाली मुक्त आत्मा को प्राप्त कर लेता है। निश्चयदृष्टि से यही अध्रुवानुप्रेक्षा मानी गई है।''२ १. त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, प्रथम पर्व, सर्ग ६ । २. (क) परमद्वेण दु आदा देवासुर-मणुवराय-विविहेहिं। ) वदिरित्तो सो अप्पा सस्सदमिदि चिंतये णिज्जं॥ -बारस अणुवेक्खा, श्लो. ७ (ख) तद्भावनासहित-पुरुषस्य तेषां वियोगेऽपि सत्युच्छिष्टेष्विव ममत्वं न भवति। तत्र ममत्वाभावादविनश्वर-निज-परमात्मानमेव भेदाभेद-रत्नत्रय-भावनांया भावयति। यादृशयविनश्वरमात्मानं भावयति तादृशमेवाक्षमानन्त-सुख-स्वभावं मुक्तात्मानं प्राप्नोति। इत्यध्रुवानुप्रेक्षामता। -बृहद्रव्यसंग्रह टीका ३५/१०२
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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