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________________ * कर्ममुक्ति में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ - १९९ * अनित्यता को मानने की अपेक्षा जानना महत्त्वपूर्ण है जो विचारक अनप्रेक्षक अनित्यता को मानने की अवस्था से ऊपर उठकर जानने की भूमिका पर पहुँच जाता है, तब शरीर के छूट जाने तथा शरीर की निन्दा, वार्धक्य, उपेक्षा, अपमान, गाली, क्षीणता, बीमारी, अशक्ति आदि के प्रसंग उपस्थित होने पर भी दुःखी नहीं होता, कष्टानुभूति नहीं होती उसे। शरीर के प्रति जो अहंता-ममता की ग्रन्थि थी, उसके टूट जाने पर भी वह आर्तध्यान नहीं करता। वह सभी कष्टों को समभाव से भोगता है और संवर-निर्जरा धर्म का उपार्जन करता है। शरीर में बुढ़ापा आने पर भी वह उससे मैत्री करेगा, दुःखित और चिन्तित नहीं होगा। यहाँ तक कि अनित्यता का साक्षात्कार करने वाला वह अनुप्रेक्षक जीते जी मरना सीख लेगा। मृत्यु की उसे जरा भी भीति नहीं होगी, बल्कि वह मृत्यु को महोत्सवरूप मानेगा। शरीर की अन्तिम परिणति = मृत्यु का भी प्रसन्नतापूर्वक वरण करने में उस अनित्यतादर्शी को कोई हिचकिचाहट नहीं होगी। पूर्व-पूर्वकृत कर्मोदयवश उसे वध, बन्धन, दमन, कष्ट आदि का अनिष्ट संयोग प्राप्त होने पर भी वह उसे कर्मक्षय का अचूक अवसर जानकर समभावपूर्वक भोग लेगा, कर्मनिर्जरा कर लेगा। __ भरत चक्रवर्ती द्वारा अनित्यानुप्रेक्षा से केवलज्ञान और सर्वकर्ममुक्ति - ऐसी अनित्यानप्रेक्षा भगवान ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती ने की थी। भरत. चक्रवर्ती इतनी ऋद्धि-सिद्धि के स्वामी होते हुए भी सबको अनित्य समझकर इनसे निर्लिप्त रहते थे। उनके स्मृतिपटल पर हर क्षण मृत्यु नाचती रहती थी। प्रत्येक कार्य वे सावधानी और जागृतिपूर्वक करते थे। एक दिन भरत स्नान के पश्चात् वस्त्राभूषणों से अलंकृत होकर अपने आप को देखने के लिए शीशमहल में गए। शीशमहल में चारों ओर उनका रूप प्रतिबिम्बित हो रहा है। सिंहासन पर बैठे-बैठे वे दर्पण में अपने प्रतिबिम्ब को देखने में तल्लीन हो गए। सहसा उनके हाथ की अंगुली में से अँगूठी नीचे गिर पड़ी। दूसरी अंगुलियों की अपेक्षा वह असुन्दर मालूम होने लगी। उन्होंने सोचा-क्या मेरी शोभा इन बाह्य आभूषणों से है? उन्होंने पहले दूसरी अँगुलियों तथा अन्य अंगों के आभूषण भी उतार डाले। यहाँ तक कि मस्तक का मुकुट भी उतार दिया। अतः जैसे पत्तों से रहित वृक्ष शोभाहीन हो जाता है, वैसी ही अपने शरीर की शोभाहीन स्थिति देखकर वे सोचने लगे-अहो ! यह शरीर ही स्वयं असुन्दर है। जिस प्रकार चित्रादि क्रिया से भींत को १. देखें-'मृत्यु-महोत्सव' पुस्तक के श्लोक २. 'अमूर्त चिन्तन' से भावांश ग्रहण, पृ. २३ ३. देखें-'शान्तसुधारस' (उपाध्याय विनयविजय जी) में सांकेतिक कथाओं से, पृ. १५१
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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