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________________ * १९८ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ हैं, नित्य कुछ है ही नहीं; वह व्यक्ति अमूढ़ है, वह इनके नष्ट हो जाने, वियोग हो जाने, इनके अनिष्टरूप में परिवर्तन हो जाने या इनके क्षीण हो जाने पर वह दुःखी नहीं होता, वह दुःखों को जानता है, किन्तु दुःख को भोगता नहीं, जबकि इन पदार्थों के वियोगादि होने पर इन पदार्थों को नित्य, स्थायी या शाश्वत मानने वाला मूढ़ अज्ञानी दुःखी होता है, वह दुःख को जानता भी है और भोगता भी है। उसके दुःखी होने का मूल कारण इन अनित्य पदार्थों को नित्य मानने का मिथ्या दृष्टिकोण है, जिसके कारण वह व्यक्ति अज्ञान, मूर्छा, मूढ़ता और मिथ्यादृष्टि का शिकार होता है। अनित्यता को जानने से लाभ ___ वह यह नहीं जानता अथवा इसे जानने की चेष्टा नहीं करता या फिर मूढ़तावश अनजान बन जाता है कि सांसारिक पदार्थजन्य या विषयजन्य सुख तो क्या, अनुत्तरविमानवासी देवों के सुख भी कालावधि पूर्ण होते ही छूट जाते हैं, . प्रियजन बिछुड़ जाते हैं, धन-सम्पत्ति भी नष्ट हो जाती है, संयोग का वियोग अवश्य होता है, ऐसी स्थिति में शाश्वत और नित्य है ही क्या, जिसका अवलम्बन लिया जाए? संसार में ऐसी कौन-सी स्थायी और नित्य वस्तु है, जो सज्जनों के आनन्द का आधार हो, जिसे प्राप्त करके चिर शान्ति प्राप्त हो सके? यह जीवन (आयु), यौवन, सौन्दर्य, इष्ट-संयोग, सम्पत्ति, वैभव, ऐश्वर्य आदि सब अनित्य हैं, इस प्रकार की अनित्यता का चिन्तन जब बार-बार उसके अन्तर्मन में प्रविष्ट हो जाता है, पुनः-पुनः चेतना में उभरता है, तब अहंकार भी और क्रोध, मोह भी समाप्तप्रायः हो जाते या मन्द हो जाते हैं, जिसके मन-मस्तिष्क में संयोग अनित्य हैं, पदार्थ नश्वर हैं, यह बात जड़ जमा लेती है, उसे उनके वियोग का, क्षीण होने या नष्ट होने का कोई दुःख या भय नहीं होता। जिस अनुप्रेक्षक के चित्त में ये संस्कार प्रगाढ़ हो जाते हैं कि सभी पदार्थ अनित्य हैं, उसके दिल में कलह, विवाद, वैर-विरोध बढ़ाने वाली बातें समाप्त हो जाती हैं। बुद्ध ने कहा"सर्व क्षणिकम्।'–जो कुछ भी दृश्यमान है, वह क्षणिक है, अशाश्वत है, परिवर्तनशील है। १. (क) 'अमूर्त चिन्तन' से भावांश ग्रहण (ख) 'शान्तसुधारस' (हिन्दी अनुवाद) (अ.-मुनि राजेन्द्रकुमार) से भाव ग्रहण, पृ. १९ २. (क) 'अमूर्त चिन्तन' से भाव ग्रहण, पृ. १९ (ख) सुखमनुत्तरसुरावधि यदतिमेदुरं। . कालतस्तदपि कलयति विरामम्॥ -शान्तसुधारस, अनित्यभावना, श्लो. ५ (ग) तत्किं वस्तु भवे भवेदिह मुदामालम्बनं यत्सताम् ? -वही, श्लो. १०
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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