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ॐ कर्ममुक्ति में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ. *. १९७ ॐ
है। आयुष्य पानी की तंरग के समान अस्थिर है। कामभोग आकाश में होने वाले इन्द्रधनुष के समान उत्पन्न होने के साथ ही थोड़ी देर में नष्ट हो जाते हैं अर्थात् जवानी में काम-विकार फलीभूत होकर जरावस्था में चले जाते हैं।'' सारांश यह है कि संसार की सभी वस्तुएँ चंचल और विनाशी हैं, आत्मा-परमात्मा ही एकमात्र अखण्ड और अविनाशी हैं। अतः आत्मा जैसी नित्य वस्तुओं को प्राप्त कर। कहा है-“इमं सरीरं अणिच्चं।'' यह शरीर अनित्य है।' । __भगवान महावीर ने शरीर को केन्द्रबिन्दु बनाकर अनित्यानुप्रेक्षा का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया-“तुम इस शरीर को देखो। यह पहले या पीछे, एक दिन अवश्य छूट जाएगा। विनाश और विध्वंस इसका स्वभाव है। यह अध्रुव, अनित्य और अशाश्वत है। इसका उपचय-अपचय (बुद्धि-हानि) होता है। इसकी विविध अवस्थाएँ होती हैं।"२
• शरीर की आसक्ति सभी आसक्तियों का मूल है वस्तुतः शरीर की आसक्ति ही सब आसक्तियों का मूल है। मन और इन्द्रियों की, इन्द्रिय-विषयों की, अंगोपांगों की तथा शरीर से सम्बद्ध समस्त सजीव-निर्जीव पदार्थों की आसक्ति अथवा यौवन, सौन्दर्य, सम्पत्ति, वाणी, बुद्धि, आयु, वैषयिक सुख, पदार्थजन्य सुख-सुविधा, वाहन, भोजन, मकान आदि सब पदार्थ शरीर से ही सम्बन्धित हैं। इसलिए शरीर की आसक्ति के छूट जाने पर इससे सम्बन्धित अन्य सब पदार्थों के प्रति होने वाली आसक्ति, मोह-ममता, अहंता आदि सब स्वतः छूटने लग जाती हैं। इस प्रकार शरीरादि के प्रति अनित्यता के पुनः-पुनः चिन्तन से इनके प्रति होने वाली गाढ़ आसक्ति, अहंता-ममता आदि से या क्रोधादि से छुटकारा मिल जाता है।
अमूढदृष्टि दुःख को जानता है, भोगता नहीं;
मूढदृष्टि जानता भी है, भोगता भी है जिसके अन्तस्तल में यह बात जम जाती है कि धन, धान, परिवार, बाल्य, यौवन, सौन्दर्य, इष्ट जन या इष्ट पदार्थ का संयोग, सुख-सम्पदा आदि सब अनित्य
१. (क) विद्युत् लक्ष्मी, प्रभुता पतंग, आयुष्य ते तो जलना तरंग।
पुरंदरी चाप अनंग रंग, शुं राचीए त्यां क्षणनो प्रसंग॥ -मोक्षमाला, पृ.८ (ख) उत्तराध्ययन, अ. १९, गा. १२ ... २. से पुव्वं पेयं पच्छा पेयं भेउरधम्म, विद्धंसण-धम्म अधुवं । अणितियं असासयं, चयावचइयं, विपरिणायधम्मं पासह एयं रूवं॥
-आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. ५, उ. २. सू. ५०९