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* १९६ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ ®
बारह अनुप्रेक्षाएँ : भवभ्रमण से मुक्ति प्रदायिनी __अनुप्रेक्षा के बारह प्रकार हैं, जो शुभ भावपूर्वक पुनः पुनः चिन्तन करके वस्तुतत्त्व को अज्ञात मन में बद्धमूल करने के लिए आलम्बन हैं, जिनसे कर्मों का संवर, निर्जरण और मोक्ष हो जाता है। वे बारह अनुप्रेक्षाएँ इस प्रकार हैं(१) अनित्यानुप्रेक्षा, (२) अशरणानुप्रेक्षा, (३) संसारानुप्रेक्षा, (४) एकत्वानुप्रेक्षा, (५) अन्यत्वानुप्रेक्षा, (६) अशुचित्वानुप्रेक्षा, (७) जासवानुप्रेक्षा, (८) संवरानुप्रेक्षा, (९) निर्जरानुप्रेक्षा, (१०) लोकानुप्रेक्षा, (११) बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा, और (१२) धर्मानुप्रेक्षा। इन बारह अनुप्रेक्षाओं का अनुचिन्तन करता हुआं व्यक्ति भवमुक्त हो जाता है।"
(१) अनित्यानुप्रेक्षा : स्वरुप, प्रयोजन और लाभ अनुप्रेक्षा का प्रथम सूत्र है-अनित्यानुप्रेक्षा। संसार के सभी पौद्गलिक पदार्थ अनित्य हैं। संसार की कोई भी वस्तु शाश्वत नहीं है। यहाँ की सभी वस्तुएँ नश्वर हैं, परिवर्तनशील हैं। यह शरीर, इन्द्रियाँ, विषयसुख, आरोग्य, यौवन, धन-सम्पत्ति, ऋद्धि-समृद्धि, वैभव, पद, प्रतिष्ठा, आयु, जीवन, ये सभी अनित्य हैं, अध्रुव हैं। कोई भी सम्बन्ध या संयोग, प्रिय जनों का संयोग आदि सब वियोग वाले हैं। “संयोगा विप्रयोगाताः।" यह सूक्ति अक्षरशः सत्य है। 'सर्वार्थसिद्धि' में कहा गया है-"ये समूदायरूप शरीर, इन्द्रिय-विषय, उपभोग्य-परिभोग्य द्रव्य जल के बुदबुद के समान अनवस्थित (अस्थिर) स्वभाव वाले हैं। मोहवश अज्ञ प्राणी इनमें नित्यता का अनुभव करता है। किन्तु वस्तुतः आत्मा के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के सिवाय इस संसार में कोई भी पदार्थ ध्रुव नहीं है। इस प्रकार का बार-बार चिन्तन करना अनित्यानुप्रेक्षा है।"२ श्रीमद् राजचन्द्र जी ने भी इसी तथ्य का समर्थन करते हुए कहा है-“लक्ष्मी बिजली की चमक के समान चंचल है। अधिकार (प्रभुत्व) भी पतंग के रंग के समान थोड़े दिन रहकर हाथ से चला जाता
१. (क) अनित्याशरण-संसारैकत्वाऽन्यत्वाऽशुचित्वाम्रव-संवर-निर्जरा-लोक-बोधिदुर्लभ-धर्मस्वाख्यात-तत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा।
-तत्त्वार्थसूत्र, अ. ९, सू. ७ (ख) अनित्यताशरणते, भवमेकत्वमन्यता।
अशौचमाश्रवं चात्मन् ! संवरं परिभावय।। कर्मणो निर्जरां धर्मं सुकृतां लोकपद्धतिम्।
बोधिदुर्लभतामेताः भावयन् मुच्यसे भवात्॥ -शान्तसुधारस (अनित्यभावना), श्लो. १ २. इमानि शरीरेन्द्रिय-विषयोपभोग-द्रव्याणि जल-बुद्बुद्वदनवस्थित-स्वभावानि। न किंचित् संसारे समुदितं ध्रुवमस्ति आत्मनो ज्ञान-दर्शनोपयोग-स्वभावादन्यदिति चिन्तनमनुप्रेक्षा।
-सर्वार्थसिद्धि ९/७/४१३