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कर्ममुक्ति में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ
अनुप्रेक्षा के द्वारा ज्ञान आत्मसात् हो जाता है
भावना और अनुप्रेक्षा दोनों का यथायोग्य स्वरूप और उनसे संवर, निर्जरा और मोक्षरूप लाभ कैसे हो सकता है ? इसे भलीभाँति निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों से समझना आवश्यक है। इन दोनों में से अनुप्रेक्षा का निरूपण करना सर्वप्रथम उचित है, क्योंकि अनुप्रेक्षा के द्वारा बार-बार सत्य-तथ्य का अनुचिन्तन करने से मन पर जमे हुए भ्रान्तियों, विपर्ययों और पूर्वाग्रहों, दुराग्रहों के मैल को काटा जा सकता है, तोड़ा जा सकता है। अनुप्रेक्षा के माध्यम या अनुप्रेक्षा की साधना से व्यक्ति मानने की भूमिका से ऊपर उठकर जानने की भूमिका तक पहुँच सकता है। फिर अनुप्रेक्षक व्यक्ति अपनी पूर्व धारणा, मान्यता, संस्कार, परम्परा या पूर्वाग्रह की दृष्टि से या काल्पनिक दृष्टि से नहीं देखेगा, अपितु यथार्थ को, सत्य-तथ्य को, सचाई को या वास्तविकता को देखता है। मनुष्य के सामने सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि मनुष्य जो वस्तुतत्त्व है या सत्य-तथ्य है, उस दृष्टि से न देखकर अपनी धारणा, रूढ़ि, संस्कार या मान्यताओं का रंगीन चश्मा लगाकर उसी दृष्टि से देखता - सोचता है। इसीलिए भगवान महावीर ने कहा - " संपिक्खए अप्पगमप्पणं । ” - अपनी आत्मा से अपनी आत्मा का सम्प्रेक्षण करो। " अप्पणा सच्चमेसेज्जा ।" - अपनी आत्मा से सत्य को ढूँढ़ो, खोजो ।' इसका तात्पर्य यह है कि अनुप्रेक्षा के माध्यम से सत्य को देखने-सोचने के लिए सत्य के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित हो जाओ, जो सत्य-तथ्य है, उसे स्वीकार करो। तभी मानने की भूमिका से ऊपर उठकर अनुप्रेक्षक साधक जानने लगेगा। जब तक मन पर मोह या मूर्च्छा का मैल जमा रहता है, तब तक व्यक्ति पूर्वाग्रहवश सब कुछ मानता चला जाता है, जान नहीं पाता । अर्थात् पदार्थ का मूल स्वरूप उसके मन-मस्तिष्क में जमकर नहीं बैठता । २
१. (क) दशवैकालिक चूलिका २
(ख) उत्तराध्ययनसूत्र, अ. ६, गा. २ २. 'अमूर्त चिन्तन' से भाव ग्रहण