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________________ * कर्ममुक्ति में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ २०१ कार्लाइल को अनित्यानुप्रेक्षा से शरीर और आत्मा के भेद का ज्ञान 'कार्लाइल' को अनित्यानुप्रेक्षण करते-करते अनित्य के साथ नित्य की झाँकी हो गई थी। अस्सी वर्ष की वय वाला कार्लाइल बाथरूम में तो अनेक बार गया था। किन्तु उस दिन स्नान करने के बाद जो घटना घटित हुई, वह पहले कदापि घटित नहीं हुई थी। स्नान करके ज्यों ही वह शरीर को तौलिये से पोंछने लगा, उसके अन्तर्मन में तीव्र चिन्तन (अनुप्रेक्षण) स्फुरित हुआ - " यह शरीर कितना बदल गया? जीर्ण हो गया ! किन्तु इसके भीतर जो जानने - देखने वाला है, वह जीर्ण नहीं हुआ। यह वैसा ही नित्य है।" १ मन पर जमा हुआ भ्रम का मैल छूट गया। (२) अशरणानुप्रेक्षा : क्यों, क्या और कैसे ? सामान्यतया मनुष्य के जीवन में अनेक खतरे हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक उसके सामने अनेक उतार-चढ़ाव आतें हैं, जिनमें हर मोड़ पर उसे दुःख, अशान्ति, वैमनस्य, संघर्ष, स्वार्थ, न्याय, सुरक्षा, अशिक्षा, रोग, बुढ़ापा आदि का सामना करना पड़ता है। इन तमाम संघर्षों का मुकाबला करके विजयी, सुखी और समृद्ध होने में अकेला सक्षम नहीं होता । अतः वह परिवार, समाज, राज्य, धर्मसंघ, सत्ताधीश या पदाधिकारी आदि अपने से अधिक समर्थ एवं सबल का सहारा ढूँढ़ता है। परिवार, समाज आदि में उसे व्यवहार में त्राण और शरण मिलती भी है, किन्तु कब तक ? जब तक दोनों पक्षों का स्वार्थ जुड़ा रहता है। जहाँ स्वार्थ को धक्का लगा या व्यक्ति किसी दुःसाध्य रोग, कर्जदारी, विपदा या मरणासन्न संकट से पीड़ित हुआ कि प्रायः उसके लिए शरण या त्राण के द्वार बन्द हो जाते हैं। वह अपने परिवार या समाज के किसी घटक या व्यक्ति के लिए इस प्रकार के पश्चात्ताप, खेद और क्षोभ से युक्त उद्गार निकालता है कि “मैंने इसको पालने-पोसने, इसकी प्रतिष्ठा बढ़ाने, सुरक्षा करने आदि में अपना खून-पसीना बहाया, कर्ज लेकर, अपने खर्च में कतरब्योंत करके इसको अपने पैरों पर खड़ा किया, आज जब मैं वृद्ध, अशक्त, रुग्ण, संकटग्रस्त, पीड़ित एवं अभावग्रस्त हो गया तो मुझे सहारा देने के बदले मेरे साथ परायेपन का व्यवहार कर रहा है, मुझे धक्का देकर बाहर निकाल दिया या संस्था से निष्कासित कर दिया !" वास्तव में देखा जाए तो मनुष्य बाहर से तो दूसरे के ऐसे व्यवहार के कारण दुःखी दिखाई १: 'अमूर्त चिन्तन' से भावांश ग्रहण, पृ. २१ .२. देखें- आचारांग-उक्ति- "जेहिं वा सद्धिं संवसति, ते वा णं एगया णियगा, तं पुव्विं परिहरति । सोवा ते णियगे पच्छा परिहरेज्जा ।' जेहिं वा पुव्विं परिवयंति तेगेि पृच्छा परिवएज्जा । पुव्विं पोसेंति." पच्छा पोसेज्जा ।” ... - आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. २, उ. १, सू. १८४, १९७, १९४
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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