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________________ १८८ कर्मविज्ञान : भाग ६ अनुप्रेक्षा की भावना - शक्ति एक उन्नीस वर्ष की फ्रेंच युवती का एक अमेरिकन युवक के साथ विवाह होना निश्चित हुआ। परन्तु युवक निर्धन था । इसलिए उसने तय किया वह अमेरिका जाकर धनोपार्जन करने के बाद यहाँ लौटकर शादी करेगा। तीन वर्ष में उसने पर्याप्त धन एकत्रित कर लिया । किन्तु दुर्भाग्य से उसे एक मुकदमे में १५ वर्ष की सजा हो गई। पन्द्रह वर्ष बाद जब वह फ्रांस वापस लौटा तो अपनी मंगेतर का स्वास्थ्य और सौन्दर्य पूर्ववत् देखकर आश्चर्यचकित हो गया। यानी ३४ वर्ष की उम्र में भी वह १९ वर्ष की युवती प्रतीत होती थी । विवाहोपरान्त युवक ने एक दिन अपनी पत्नी से उसके चिरयौवन और सौन्दर्य का रहस्य पूछा तो उस युवती ने बताया कि मैं प्रतिदिन एक आदमकद शीशे के सामने खड़ी होकर अपने चेहरे को देखकर मन ही मन संकल्प की भावधारा बहाती थी कि मैं बिलकुल कल जैसी ही हूँ। इस प्रचण्ड भावना-शक्ति के बल पर ३४ वर्ष की आयु में भी मैं अपने यौवन को पूर्ववत् अक्षुण्ण बनाये रखने में सफल हुई। यह चमत्कार अनुप्रेक्षा के जैसा ही था । ' प्रबलभावना की धारा से दुःसाध्य रोगी को स्वस्थ कर दिया ब्राजील का एक विलक्षण मानसिक-शक्ति-सम्पन्न व्यक्ति 'जोस एरीगो' बिना किसी उपकरण के किसी भी तरह के दुःसाध्य रोग से ग्रस्त व्यक्ति को इच्छा-शक्ति से रोगमुक्त कर देता था। एक बूढ़ी औरत पेट के ट्यूमर की पीड़ा के कारण मरणशय्या पर पड़ी छटपटा रही थी । उसने कुछ ही मिनटों में उसका पेट चीरकर जरा भी तकलीफ दिये बिना नारंगी के आकार के ट्यूमर को बाहर निकाल दिया। काटे हुए भाग को भी आपस में जोड़कर दबा दिया । न ही रक्तस्राव और न किसी प्रकार की पीड़ा । शीघ्र ही रोगी स्वस्थ हो गया । यह भी भावना का ही चमत्कार है । २ अनुप्रेक्षा : आध्यात्मिक सजेस्टोलोजी है लेकिन अनुप्रेक्षा में और ऐसी प्रक्रियाओं में समानता होते हुए भी उद्देश्य में अन्तर है। अनुप्रेक्षा कर्मक्षय या कर्मनिरोध की दृष्टि से, आध्यात्मिक नैतिक प्रयोजन से की जाती है। अनुप्रेक्षा एक प्रकार से आध्यात्मिक सजेस्टोलोजी है। पिछले पृष्ठ का शेष (ख) 'अखण्ड ज्योति, दिसम्बर १९८१ ' के अंक से भाव ग्रहण, पृ. ३४ (ग) वही, पृ. ३४ १. अखण्ड ज्योति में प्रकाशित 'ओल्ड एज, इट्स कॉज एण्ड प्रिवेन्शन' से उद्धृत घटना, दिसम्बर १९८१ २. 'अखण्ड ज्योति, सितम्बर १९८१ ' से संक्षिप्त सार, पृ. २६.
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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