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१८४ * कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ
निष्कर्ष यह है कि अनुप्रेक्षा से सभी कर्मों के चारों प्रकार के बन्धों पर अचूक प्रभाव पड़ता है। अर्थात् कर्मों के स्वभाव (प्रकृति), स्थिति, रस (अनुभाव) एवं प्रदेश चारों में परिवर्तन घटित हो जाता है। अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं की धारा जितनी तीव्र, स्थिर, एकाग्रता से युक्त, तन्मयता से ओतप्रोत होगी, कर्मों के रसअनुभाव पर उतना ही तीव्रतर प्रभाव पड़ेगा। रासायनिक परिवर्तन उतनी ही तेजी से होगा, जब काषायिक (राग-द्वेषादि) रस की प्रगाढ़ता-मन्दता में परिणत हो जायेगी तो कर्मों की स्थिति भी दीर्घकालिक के बदले अल्पकालिक उनकी प्रकृति भी अशुभ से शुभ-शुभतर होती जायेगी और साथ ही संवर एवं निर्जरा की प्रक्रिया चालू होने से कर्मों के जत्थे के जत्थे (प्रदेश) भी आत्मा से पृथक् होते जायेंगे।' कर्मबन्ध के चार प्रकार और उनकी अनुप्रेक्षा से परिवर्तन
कर्मविज्ञान के चतुर्थ भाग में हम बता आये हैं कि कर्मबन्ध के चार प्रकार होते हैं-प्रकृतिबन्ध (कर्मों के स्वभाव के अनुसार अलग-अलग वर्ग में निर्माण होना) स्थितिबन्ध (कर्मों की स्थिति-कालावधि का निर्धारण कि कौन-सा कर्म कितने काल के बाद उदय में आकर, कितने काल तक फल भुगताता रहेगा), अनुभावाबन्ध (कषायों की तीव्रता-मन्दता के अनुसार रस का निर्धारण होकर फल देने की शक्ति = रसविपाक का निश्चय) और प्रदेशबन्ध (कर्मदलिकों का संचय कर्मपुद्गलों का परिमाण के अनुसार आत्मा के साथ बँध जाना)। अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन से इन चारों प्रकार के बन्धों में तबदीली आ जायेगी। गाढ़बन्धन कैसे शिथिलबन्धन हो जाता है ? . ___ अनुप्रेक्षा से सात कर्मों का पूर्वकाल में बद्ध गाढ़बन्धन शिथिलबन्धन कैसे हो जाता है ? इसे कर्मशास्त्र में एक उदाहरण द्वारा समझाया गया है-“रुई धुनने वाला रुई का एक गोला लेकर उसकी धुनाई शुरू करता है। धुनते-धुनते वह रुई के एक-एक तार व तन्तु को अलग-अलग कर देता है। इस प्रक्रिया से जो रुई के तन्तु पहले परस्पर गाढ़रूप में बँधे हुए थे, वे शिथिल हो जाते हैं; इतने शिथिल कि उन्हें चाहे जैसे मोड़ा, तोड़ा या दबाया जा सकता है।" ___ इसी प्रक्रिया को 'आचारांगसूत्र' में एक वाक्य में निर्दिष्ट किया गया है"धुणे कम्मसरीरगं।' अर्थात् आत्मा (कषायात्मा) को कृश करो, जीर्ण करो और कर्म-शरीर को धुन डालो।
उपर्युक्त प्रकार से रुई की धुनाई की तरह कर्मों की धुनाई भी जब अनुप्रेक्षारूप तीव्रभावना से की जाती है, तब कार्मणशरीर के रूप में पूर्वबद्ध कर्मों
१. 'आगममुक्ता' से भाव ग्रहण, पृ. १४३