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________________ ॐ संवर और निर्जरा की जननी : भावनाएँ और अनुप्रेक्षाएँ ® १८३ ® गया है-अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करता हुआ साधक उत्तम क्षमादि धर्मों का अच्छी तरह से पालन कर पाता है तथा परीषहों को जीतने के लिए उत्साहित होता है।' ___ अनुप्रेक्षा से विशिष्ट आध्यात्मिक लाभ जैनागम ‘उत्तराध्ययनसूत्र' में प्रतिपादित अनुप्रेक्षा से विशिष्ट आध्यात्मिक लाभ का चिन्तन-प्रश्न- पूछा गया है-“भन्ते ! अनुप्रेक्षा से जीव क्या (आध्यात्मिक लाभ) प्राप्त करता है?" उत्तर में कहा गया है-"अनप्रेक्षा से जीव आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की गाढ़ बन्धन से बँधी हुई प्रकृतियों को शिथिल बन्ध वाली कर लेता है। उन (कर्मों) की दीर्घकालीन स्थिति को अल्पकाल वाली कर लेता है, उनके तीव्र अनुभाव (प्रगाढ़ रस) को मन्द कर लेता है तथा उनके बहु-प्रदेशों को अल्प-प्रदेशों में बदल देता है। आयुष्य कर्म का बन्ध कदाचित् करता है, कदाचित् नहीं भी करता।" "असातावेदनीय कर्म का बार-बार उपचय नहीं करता तथा अनादि एवं अनन्त दीर्घ मार्ग वाले तथा जिसके चतुर्गति रूप चार किनारे हैं, ऐसे चातुरन्त संसाररूपी अरण्य को शीघ्रता से पार कर जाता है।"२ पिछले पृष्ठ का शेष(ग) द्वादशाऽपि सदा चिन्त्या अनुप्रेक्षा महात्मभिः। - तद्भावना भवत्येव कर्मणः क्षयकारणम्।। -प. पं. ६/४२ (घ) इय आलंबणमणुपेहाओ धम्मस्स होंति झाणस्स। (ङ) धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-एगाणुप्पेहा, अणिच्चा- गुप्पेहा, असरणाणुप्पेहा, संसाराणुप्पेहा। -स्थानांगसूत्र, स्था. ४, उ. १, सू. ६८ (च) सुहजोगेसु पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स। । ... सुहजोमस्स गिरोहो सुद्धव जोगेण संभवति॥ ___-बारस अणुवेक्खा ६३ (छ) विध्याति कषायाग्निर्विगलिति रागो, विलीयते ध्वान्तम्। ___ उन्मिषति बोधदीपो हृदि पुंसां भावनाऽभ्यासात्।। -ज्ञानार्णव १३/२/५९ अनुप्रेक्षा हि भावयन् उत्तमक्षमादींश्च प्रतिपालयति, परीषहांश्च जेतुमुत्सहते। -सर्वार्थसिद्धि ९/७/४१९ (प्र.) अणुप्पेहाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ? (उ.) अणुप्पेहाए णं आउयवज्जाओ सत्त-कम्म-पयडीओ घणिय-बंधण-बद्धाओ सिढिल-बंधाओ पकरेइ। दीहकालट्ठिइयाओ हस्स-कालट्ठिइयाओ पकरेइ। तिव्वाणुभावाओ मंदाणुभावाओ पकरेइ। बहुपएसग्गाओ अप्पपएसग्गाओ पकरेइ। आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ, सिय णो बंधइ। असायावेयणिज्जं णं कम्मं नो भुज्जो भुज्जो उवचिणाइ। अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंत-संसार-कंतारं खिप्पामेव वीईवयइ। -उत्तराध्ययन
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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