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________________ ® १८२ 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ ® गया है-कर्मों की निर्जरा के लिए अस्थि-मज्जानुगत अर्थात् हाड़-हाड़ और रग-रग में रमें हुए = पूर्णतया हृदयंगम हुए श्रुतज्ञान (शास्त्र-सिद्धान्तज्ञान) के परिशीलन करने का नाम 'अनुप्रेक्षणा' है। अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन और अभ्यास का फल और माहात्म्य 'तत्त्वार्थसार' में स्पष्ट कहा गया है कि इस प्रकार (अन्तरंग सापेक्ष) (आगे कही. जाने वाली) बारह अनुप्रेक्षाओं का (बार-बार) भावन = चिन्तवन करने से साधु-जीवन में धर्म (संवर-निर्जरारूप या रत्नत्रयरूप धर्म) का महान् उद्यम होता है। उससे निष्प्रमाद साधक के महान संवर का लाभ भी होता है। ‘सर्वाथसिद्धि' में अनुप्रेक्षा से विशिष्ट लाभ बताते हुए कहा गया है-इससे (अर्थात् शरीर और आत्मा की भिन्नता के समाधान से) तत्त्वज्ञान की भावनापूर्वक आत्यन्तिक (सर्वकर्मक्षयरूप) मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है। ‘पद्मनन्दि पंचविंशतिका' में कहा गया है-“महात्मा पुरुषों को बारह ही अनुप्रेक्षाओं का सदैव चिन्तन करना चाहिए, क्योंकि उनकी (बारह तथ्यों से युक्त अनुप्रेक्षाओं की) भावना (चिन्तन) कर्मों के क्षय की कारण होती है।" 'भगवती आराधना' के अनुसार-"जो व्यक्ति धर्मध्यान में प्रवृत्त होता है, उसके लिए ये बारह अनुप्रेक्षाएँ आलम्बनरूप होती हैं।" अनुप्रेक्षाओं के बल पर ही ध्याता धर्मध्यान में स्थिर होता है। 'स्थानांगसूत्र' में धर्मध्यान में स्थिरता के लिए चार अनुप्रेक्षाएँ बताई गई हैं-एकत्वानुप्रेक्षा, अनित्यानुप्रेक्षा, अशरणानुप्रेक्षा और संसारानुप्रेक्षा)। 'बारस अणुवेक्खा' के अनुसार-तात्पर्य यह है कि शरीर आदि पर-पदार्थों से सम्बन्धित अनित्यत्व आदि अनुप्रेक्षाओं का बार-बार चिन्तन करने से मन-वचन-काय शुभ प्रवृत्तियों में प्रवृत्त रहते हैं, इससे अशुभ योग का संवर होता है तथा केवल आत्मा के ध्यानरूप शुद्धोपयोग से शुभ योग का संवर (भावसंवर) हो जाता है। अनुप्रेक्षा का विशिष्ट फल बताते हुए ‘ज्ञानार्णव' में कहा गया है-इन द्वादश भावनाओं (अनुप्रेक्षाओं) का निरन्तर अभ्यास करने से पुरुषों के हृदय में कषायरूप अग्नि बुझ जाती है तथा पर-भावों के प्रति रागभाव गल जाता है और अज्ञानरूपी अन्धकार का विलय होकर ज्ञानरूप दीपक (बोधदीप) का प्रकाश हो जाता है। 'सर्वार्थसिद्धि' में कहा १. कम्म-णिज्जरणद्वेमट्ठि-मज्जाणुगयस्स सुदणाणस्स परिणमणमणुवेक्खणा णाम। -धवला ९/४, १, ५५/२६३ २. (क) एवं भावयतः साधोर्भवेद्धर्म-महोद्यमः। ततो हि निष्प्रमादस्य महान् भवति संवरः।। -तत्त्वार्थसार ६/४३/३५१ (ख) ततस्तत्त्वज्ञानभावनापर्वक वैराग्य-प्रकर्षे सति आत्यन्तिकस्य मोक्षसुखस्यावाप्तिर्भवति। -स. सि. ९/७/४१६
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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