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________________ * संवर और निर्जरा की जननी : भावनाएँ और अनुप्रेक्षाएँ * १८५ * पर चोट पड़ती है। यानी अनप्रेक्षा उसे एक बार, दो बार, अनेक बार लगातार धुनती है तो भावना की ताँत का प्रहार बार-बार होने से वे बन्धन शिथिल हो जाते हैं। अर्थात् गाँठरूप में बँधे हुए कठिन कर्मबन्ध इस प्रकार धुनने पर शिथिलबन्ध वाले हो जाते हैं। अनुप्रेक्षा से स्थितिघात और रसघात कैसे हो जाता है ? अनुप्रेक्षा से दीर्घकालीन स्थिति अल्पकालीन और तीव्र रस मन्द रस कैसे-कैसे हो जाता है ? इसे व्यावहारिक उदाहरणों से समझिए-(१) लोहे की एक मोटी चादर है। वह यदि सौ वर्ष तक पड़ी रहे तो भी गलती नहीं, किन्तु वही चादर मिट्टी और पानी के सम्पर्क में लगातार रहे तो बहुत शीघ्र जंग लगकर गल-सड़ जाती है और मिट्टी की तरह बिखर जाती है। (२) लोहे की बहुत मोटी चादर को घन पर रखकर बड़े-बड़े हथौड़ों से पीटने पर भी वह टूटती नहीं, किन्तु उस पर बिजली के करेंट वाला तार छोड़ा जाता है, तो उससे वह शीघ्र ही कट जाती है। इसी प्रकार अनुप्रेक्षा और भावना के तीव्र एवं लगातार सम्पर्क से, उनके तीव्र प्रवाह से कार्मणशरीर पर चोट पड़ती है और उन-उन कर्मों की शीघ्र निर्जरा होने से शीघ्र ही वे आत्मा से पृथक् हो जाते हैं। अनुप्रेक्षाओं का जबर्दस्त प्रभाव पड़ने से रसघात भी शीघ्र हो जाता है। इसी प्रकार अनुप्रेक्षा की तीव्र विद्युत् तरंगें जब कार्मणशरीर के संचित कर्मपुद्गलों पर पड़ती हैं, तब कर्मों की स्थिति, रस एवं दल में भी परिवर्तन आ जाता है। इस प्रक्रिया को कर्मग्रन्थ में स्थितिघात, रसघात तथा अपकर्षण' कहा गया है। आशय यह है कि अनुप्रेक्षा से आत्मा के साथ पहले बँधे हुए अशुभ कर्मों-तीव्र रस मन्द रस में परिणत हो जाता है, तब अशुभ प्रकृतियाँ शुभ रूप में परिणत हो जाती हैं। इस प्रकार सजातीय अशुभ कर्म-प्रकृतियों का शुभ प्रकृतियों में संक्रमण हो जाने से असातावेदनीय की प्रकृति सातावेदनीय के रूप में संक्रमित हो जाती है, तथैव अशुभ नाम, गोत्र कर्म-प्रकृति शुभ नाम, गोत्र के रूप में परिवर्तित हो जाती है।२ ___ अतः कर्मविज्ञान के व्याख्याकारों के अनुसार-आगमसम्मत सात कर्मप्रकृतियों में स्थितिघात, रसघात, प्रकृति-परिवर्तन आदि अनुप्रेक्षा के प्रयोग से हो सकते हैं, अपकर्षण (अपवर्तन) या संक्रमण भी हो सकता है। किन्तु आयुष्य कर्म में परिवर्तन नहीं हो सकता। इतना अवश्य किन्हीं आचार्यों का मत है कि यद्यपि १. देखें-'कर्मविज्ञान, भा. ६' में कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय दशाएँ-१-२ में दस मुख्य दशाओं का वर्णन। वे १० मुख्य दशाएँ ये हैं-(१) बन्ध (बन्धनकरण), (२) उद्वर्तना (उत्कर्षण), (३) अपवर्तना (अपकर्षण), (४) सत्ता, (५) उदय, (६) उदीरणा, (७) संक्रमण, (८) उपशमन, (९) निधत्ति या निधत्त, और (१०) निकाचना। २. 'आगममुक्ता' से भावांश ग्रहण, पृ. १४२, १४६
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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