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ॐ १७८ * कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ
__ अनन्तज्ञान-दर्शन-सुख-शान्तिमय आत्मा को जानना, मानना और उसी में रमण करना सच्चे माने में ब्रह्मचर्य है। व्यवहारदृष्टि से ब्रह्मचर्य का लक्षण __व्यावहारिक दृष्टि से आज ब्रह्मचर्य का अर्थ-मैथुन त्याग. या स्पर्शनेन्द्रिय विषय का सर्वथा त्याग किया जाता है, वह अधूरा लक्षण है, क्योंकि स्पर्शनेन्द्रिय के आठ विषय हैं। वे कैसे छोड़े जा सकेंगे देह के रहते ? किन्तु अब्रह्मचर्यवृत्ति के त्याग के लिए शास्त्रकारों ने ब्रह्मचर्य रक्षा की। नौ गुत्थियाँ (बाड़े) बताई हैं, उनका विवेकपूर्वक पालन करने से पाँचों इन्द्रियों के संयमरूप ब्रह्मचर्य की साधना व्यावहारिक दृष्टि से भलीभाँति हो सकती है। अतएव आत्म-लीनतापूर्वक पंचेन्द्रिय विषयों के प्रति राग-द्वेष का त्याग वास्तविक ब्रह्मचर्य है। निश्चय ब्रह्मचर्य सापेक्ष व्यवहार ब्रह्मचर्य साधना से संवर-निर्जरा ___ यदि स्पर्शनेन्द्रिय-संयम को ब्रह्मचर्य कहें या पंचेन्द्रिय विषय संयम को ब्रह्मचर्य कहें, तो अनिन्द्रिय अशरीरी सिद्ध भगवान में यह लक्षण घटित नहीं होगा, जबकि वे पूर्ण ब्रह्मचारी हैं। मैथुन त्याग को ब्रह्मचर्य कहें तो पृथ्वीजलकायिकादिः जीवों को ब्रह्मचारी मानना पड़ेगा, क्योंकि उनमें मैथुन क्रिया होती ही नहीं। अतः आत्म-रमणता या आत्म-लीनता ही ब्रह्मचर्य है। इसके बिना केवल पंचेन्द्रिय विषयों के त्याग का कोई महत्त्व नहीं है। आत्म-रमणतारूप निश्चय ब्रह्मचर्य सापेक्ष व्यवहार ब्रह्मचर्य धर्म की साधना हो तो उससे संवर, निर्जरा और मोक्ष भी प्राप्त हो सकता है। इन्द्रियों का प्रवाह जो बहिर्मुखीं है, वह जब अन्तर्मुखी बनता है, तभी ब्रह्मचर्य की वास्तविक साधना होती है, उससे मन, इन्द्रियाँ आदि सभी आत्म-ज्ञान और आत्मानन्द को तथा आत्म-शक्ति को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं।
१. 'धर्म के दस लक्षण' से भाव ग्रहण, पृ. १६१, १५४