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ॐ दशविध उत्तम धर्म १७७
छूटे, शरीर का परिग्रह छूट जाएगा । देह के प्रति एकत्व का और रागादि का त्याग करने पर दुबारा देह धारण नहीं करनी पड़ती। परन्तु शरीर के प्रति अनादिकाल के रागादि और एकत्व के संस्कार छोड़ने अत्यन्त कठिनतर हैं । '
अतः आकिंचन्य धर्म के धारक को, स्वयं को पर-पदार्थों से भिन्न, अकेला मानना होगा, उपाश्रय, धर्म-स्थान, पुस्तक, शास्त्र, संघ, भक्त-भक्ता आदि के प्रति भी भिन्नता, अन्तर से निर्लेपता धारण करनी होगी। समस्त पर - पदार्थों से भिन्न निज आत्मा का अनुभव करना होगा। तत्पश्चात् अन्तरंग परिग्रहरूप राग, द्वेष, मोह एवं कषायों के अभावपूर्वक तदनुसार बाह्य परिग्रह का भी बुद्धिपूर्वक भूमिकानुरूप त्याग करना होगा । २
परिग्रह को समस्त पापों की जड़ समझकर सर्व कषायों और मिथ्यात्व से रहित होने से आकिंचन्य धर्म सबसे महान् और कठिनतम माना गया है।
(१०) उत्तम ब्रह्मचर्य : एक अनुचिन्तन
ब्रह्मचर्य आध्यात्मिक जीवन के विकास का मेरुदण्ड है; इसके बिना दूसरे व्रत निःसार हैं, फीके हैं।
ब्रह्मचर्य का आध्यात्मिक दृष्टि से 'अनगार धर्मामृत' में अर्थ किया गया हैपर-द्रव्यों से रहित शुद्ध, बुद्ध, ज्ञानस्वरूप निर्मल आत्मा में चर्या अर्थात् लीनता होती है, उसे ब्रह्मचर्य कहते हैं। व्रतों में सर्वश्रेष्ठ सार्वभौम इस ब्रह्मचर्य व्रत का जो पालन करते हैं, वे अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त करते हैं।
'भगवती आराधना' में इसी आशय से ब्रह्मचर्य की परिभाषा की गई है - जीव ब्रह्म है, देह की सेवा से विरक्त होकर जीव में ही जो चर्या होती है, उसे ब्रह्मचर्य जानो । ब्रह्मचर्य के साथ लगे उत्तम शब्द से यह ज्ञात होता है कि सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानसहित आत्मलीनता ही उत्तम ब्रह्मचर्य है । ३
१. 'धर्म के दस लक्षण' से भावांश ग्रहण, पृ. १४४-१४५ वही, पृ. १४५
(क) यः ब्रह्मणि स्वात्मनि शुद्ध-बुद्धे चर्या परद्रव्यमुचप्रवृत्तिः ।
तद् ब्रह्मचर्यं व्रतसार्वभौमं ये पान्ति ते यान्ति परं प्रमोदम् ।। - अनगार धर्मामृत ४ / ६०
(ख) जीवो बंभा जीवम्मि चेव चरिया हविज्ज जा जणिदो ।
- भगवती आराधना ८७८
. तं जाण बंभचेरं, विमुक्का परदेहतित्तिस्स ॥ (ग) आत्मा ब्रह्म विविक्त- बोध - निलयो यत्तत्र चर्यं पर। स्वांगासंग-विवर्जितैकमनसस्तद् ब्रह्मचर्यं मुनेः ॥
- पद्मनंदि पंचविंशतिका १२/२