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________________ ॐ १७६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ हुए कहा गया है-बाह्य परिग्रह का त्याग भावों की शुद्धि के लिए किया जाता है। परन्तु रागादि भावरूप आभ्यन्तर परिग्रह के त्याग बिना निष्फल है।' वस्तु परिग्रह नहीं, वस्तु के प्रति मूर्छा परिग्रह है __ वस्तुतः वस्तु अपने आप में परिग्रह नहीं होती, उसके ग्रहण को भाव, संग्रह की इच्छा, उस पर ममत्व-मूर्छा आदि परिग्रह है। यदि पर-पदार्थ के ग्रहण या संग्रह की भावना या उस पर ममता-मूर्छा नहीं है तो पर-पदार्थ की उपस्थिति परिग्रह नहीं है। इसीलिए भगवान महावीर ने “साधुओं के धर्म-उपकरणों को परिग्रह नहीं बताया, उन्होंने उन पर मूर्छा-आसक्ति को परिग्रह कहा है।" 'तत्त्वार्थसूत्र' में भी मूर्छा को परिग्रह कहा है। ऐसा नहीं माना जाएगा तो तीर्थंकरों के तेरहवें गणस्थान में (वीतराग) होने पर भी अष्टमहाप्रातिहार्य, देह तथा समवसरणादि विभूतियों को भी परिग्रह मानना होगा, जबकि अन्तरंग परिग्रहों का अस्तित्व भी दसवें गुणस्थान तक ही होता है। 'आवश्यकचूर्णि' में अकिंचनता का अर्थ अपने देह आदि में भी निःसंगता रखना किया है। आचार्य पूज्यपाद ने परिग्रह का अर्थ किया है-“ममेदं बुद्धिलक्षणः परिग्रहः।'' यह वस्तु मेरी है, इस प्रकार की बुद्धि रखना परिग्रह है। भरत चक्रवर्ती के पास अपार वैभव होते हुए भी वे उसके प्रति अलिप्त एवं उदासीन थे, उसमें उपादेय बुद्धि नहीं थी, इसीलिए वे शीशमहल में अपने शरीर एवं वैभव आदि के प्रति ममत्व को एक झटके में त्याग सके। अन्तरंग में आकिंचन्यवृत्ति थी।२ । वस्तुतः अन्तरंग-बहिरंग परिग्रह मिथ्यात्वरूपी जड़ से पनपते हैं। मिथ्यात्वरूपी जड़ को काट देने से बाकी के परिग्रह समय पर स्वतः छूट जाएँगे। पर-पदार्थों को अपना मानना ही मिथ्यात्व है। यदि उन्हें अपना मानना छोड़ दें तो स्वतः ही उनका परिग्रह समय पाकर छूट जाएगा। शरीर को अपना मानना छोड़ दो, उस पर से ममत्व त्याग दो, उसके प्रति राग, मोह छोड़ दो, तो भी शरीर भले ही तत्काल न १. (क) बाहिरगंथ विहीणा दलिद्द-मणुवा सहावदो होति। . अब्भंतरगंथं पुण ण सक्कदेको विछंडेदु।। -कार्तिकेयानुप्रेक्षा ३८७ (ख) भावविशुद्धिणिमित्तं बाहिरगंथस्स कीरए चाओ। बाहिरचाओविहलो अब्भंतरगंथजुत्तस्स। -अष्टपाहुड (भावपाहुड) से २. (क) न सो परिग्गहो वुत्तो नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इह वुत्तं महेसिणा॥ -दशवैकालिक, अ. ६, गा. २0 (ख) मूर्छा परिग्रहः। -तत्त्वार्थसूत्र (ग) नत्थि जस्स किंचणं से; अकिंचणो, तस्स भावो अकिंचणियं। -आवश्यकचूर्णि सर्वार्थसिद्धि, अ. ७, सू. १७
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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