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________________ ॐ दशविध उत्तम धर्म ॐ १७३ ॐ अनन्तानुबन्धी चतुष्क का अभाव होता है, शेष कषायों की प्रकृतियाँ उनमें मौजूद रहती हैं। इसलिए उनकी बाह्य प्रवृत्ति संयम-सी प्रतीत होने पर भी वहाँ संयम नहीं होता। बाहर में संयम प्रतीत होने पर भी अन्तरंग में संयम नहीं है, तो बाहर में संयम दृष्टिगोचर होने पर भी संयम हो ही यह निश्चित नहीं है। इन्द्रियज्ञान या इन्द्रियाँ देखने-सुनने आदि का ज्ञान करती हैं, परन्तु जानना मात्र बंध का कारण नहीं है, बंध का कारण वह तब बनता है, जब इन्द्रियज्ञान विषयों के प्रति प्रियता-अप्रियता, राग-द्वेष का भाव किया जाए। अतः आत्म-संयम, इन्द्रियसंयम (अन्तर्मुखी) और प्राणिसंयम करने से अवश्य ही संवर-निर्जरा का लाभ मिल सकता है, इसमें कोई संदेह नहीं। (७) उत्तम तप : स्वरूप, प्रकार और उपाय तप का सामान्य लक्षण किया गया है-"अष्टकर्मतपनात् तपः।"-आठों कर्मों को तपाकर जिससे आत्म-शुद्धि की जाए, शरीर और मन को उपसर्गों और परीषहों को समभावपूर्वक सहने में तथा धर्म-पालन करने में सक्षम बनाया जाए। 'प्रवचनसार तात्पर्य वृत्ति' में कहा गया है-समस्त रागादि पर-भावों की इच्छा के त्याग द्वारा स्व-स्वरूप में प्रतपन करना, आत्मा को शुद्ध निष्कलंक-निर्दोष बनाना, आत्मलीनता द्वारा विकारों पर विजय पाना तप है। 'धवला' में इच्छा निरोध को तप कहा गया है। तप के पूर्व 'उत्तम' शब्द सम्यग्दर्शन के अस्तित्व का सूचक है। 'अष्टपाहुड' में भी कहा है-कोई जीव सम्यग्दर्शन के बिना करोड़ों वर्षों तक उग्र तप करे तो भी वह बोधिलाभ प्राप्त नहीं कर पाता। देह और आत्मा का भेदविज्ञान जानना ही सम्यक् तप का महान् उद्देश्य है। इसीलिए जैनशास्त्र में कहा है-इस लोक, पर-लोक, प्रशंसा, कीर्ति, प्रसिद्धि आदि कामनाओं से, नियमों से तप न करें। सम्यक् तपरूपी अग्नि कर्मरूपी तृण को जला डालती है, आत्मा को शुद्ध बना देती है। बाह्य तप ६ प्रकार के हैं, वे ६ प्रकार के आभ्यन्तर तप में सहायक हैं। इच्छाओं के निरोधरूप शुद्धोपयोगी वीतरागभाव में लीनता ही सच्चा तप है। फिर वह बाह्य तप हो या आभ्यन्तर, दोनों में शुद्धोपयोगरूप वीतरागभाव की प्रधानता है। तप के विषय में हम स्वतंत्र रूप से निर्जरा के प्रकरण के प्रकाश डालेंगे। १. (क) धर्म के दस लक्षण' से भाव ग्रहण, पृ. ८८-८९ - (ख) 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण, पृ. ६३५ २. (क) दशवैकालिक हारि. वृत्ति. अ. १. गा. १ . (खं) समस्तरागादिपरभावेच्छात्यागेन स्व-स्वरूपे प्रतपनं विजयनं तपः। -प्रवचनसार ता. वृ., गा.७९ (ग) इच्छा निरोधस्तपः। -धवला प्र. १३/५/४/२६, पृ. ५४ . (घ) 'धर्म के दस लक्षण' से भाव ग्रहण, पृ. ९९, १०१ .
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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