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ॐ १७२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ
__इसीलिए निश्चयदृष्टि से संयम का अर्थ है-उपयोग को पर-पदार्थों से समेटकर आत्म-सम्मुख करना, अन्तर्मुखी करना, अपने में सीमित करना, अपने में लगाना। उपयोग की स्वसम्मुखता, स्वलीनता ही निश्चयसंयम है। व्यवहारसंयम के लक्षण पहले बता चुके हैं। पंच अनुत्तरवासी देवों के संयम क्यों नहीं ? ___ एक शंका और है-यदि बाह्य हिंसा का परित्याग और पंचेन्द्रिय विषयों में प्रवृत्ति न होने या बहुत कम प्रवृत्ति होने पर तो पाँच अनुत्तरविमानवासी देवों में भी संयम मानना चाहिए। स्पर्शेन्द्रिय विषयक (मैथुन) प्रवृत्ति से तो वे बिलकुल दूर हैं। बारहवें देवलोक से ऊपर के देव शान्त और कामलालसा से दूर होते हैं। नीचे के देवलोकों के देवों से वे अधिक सन्तुष्ट और सुखी होते हैं। सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र देवों को ३३ हजार वर्ष तक कुछ खाने-पीने का भाव ही नहीं होता। रसनेन्द्रिय बहुत अधिक तृप्त है। दूसरी इन्द्रियों के विषयों का भी उनमें अभाव-सा है। जीव-हिंसा का प्रसंग वहाँ आता ही नहीं। उनके कषाय मन्द-मन्दतर रहते हैं, पंच पापों की प्रवृत्ति भी नहीं देखी जाती। एकान्त शुक्ललेश्या होती है। फिर भी जैन-सिद्धान्तानुसार उन देवों को असंयमी कहा है। वहाँ उत्तम संयम या संयम धर्म नहीं माना गया है। दूसरी ओर श्रावक जो पूर्ण महाव्रती नहीं होता, उसके पाँच अणुव्रत ही होते हैं। फिर भी उसे असंयमी न कहकर संयमासंयमी कहा गया है, श्रमणवर्ग को पूर्ण संयमी कहा है। संयम देवों में नहीं, मानवों में ही बताया है, इसका क्या कारण है?
इसका समाधान यह है कि केवल बाह्य प्रवृत्ति का त्याग ही संयम होता तो देवों में वह अवश्य माना जाता तथा एकेन्द्रिय आदि तिर्यंचों में भी उसकी सम्भावना मानी जाती, क्योंकि वे तो एकमात्र शरीर से या दो, तीन या चार इन्द्रियों से मनुष्य की अपेक्षा कम प्रवृत्ति करते हैं। किन्तु संयम मात्र बाह्य प्रवृत्ति कम करने का नाम ही नहीं है, अपितु उस पावन आन्तरिक वृत्ति का नाम है, जो मनुष्यों में पाई जा सकती है, देवों या तिर्यंचों में नहीं। आन्तरिक वृत्ति की पवित्रता ही संयम, बाह्य प्रवृत्ति कम करना मात्र नहीं
वास्तव में, आन्तरिक वृत्ति की पवित्रता ही संयम है, जो सम्यग्दर्शन से उत्पन्न होती है और संयम की प्राप्ति होती है-अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषाय के अभाव से। अनुत्तरविमानवासी देवों के सिर्फ
१. 'धर्म के दस लक्षण' से भाव ग्रहण, पृ. ८५