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________________ ॐ दशविध उत्तम धर्म ® १७१ 8 षट्कायिक जीवों के घात तथा घात के भावों का त्याग करने को प्राणीसंयम और पंचेन्द्रियों तथा मन के विषयों के त्याग को इन्द्रियसंयम कहते हैं। इस सम्बन्ध में सहज ही एक प्रश्न उठता है कि षट्कायिक जीवों की रक्षा का ध्यान पर-जीवों की रक्षा की ओर जाता है, जबकि सिद्धान्त यह है कि अपनी ओर से चलाकर किसी प्राणी का प्राण (दशविध) लेना नहीं, न निमित्त बनना, किन्तु सिद्धान्त की दृष्टि से परजीवों की रक्षा, उस जीव का उपादान ठीक हो, शुभ कार्य का उदय हो, तभी हो सकती है, अन्यथा कितना ही प्रबल निमित्त हो, नहीं हो सकती। फिर पर-जीवों की रक्षा का विकल्प करके पुण्यबन्ध तो अनेक बार किया, किन्तु अपनी आत्मा की रक्षा की ओर प्रायः आम आदमी का ध्यान ही नहीं जाता कि मेरी आत्मा का पर लक्ष्य से प्रति क्षण अपने शुद्धोपयोगरूप भावप्राणों का घात हो रहा है। मिथ्यात्व अथवा कषायभावों से यह जीव सतत अपघात कर रहा है। इस भयंकर भाव-हिंसा की ओर ध्यान कम है। आज इन्द्रियसंयम का अर्थ यही लगाया जाता है, इन्द्रियों को विषयों से मोड़ देना। इस दृष्टि से जगत् इन्द्रियों का दास बना हुआ। आत्मा स्वयं ज्ञान और आनन्द स्वभाव वाली है, मगर आज हमारा ज्ञान और आनन्द दोनों इन्द्रियाधीन हो रहे हैं। जानेंगे तो इन्द्रियों के माध्यम से; देखेंगे, सँघुगे या स्पर्श करेंगे तो इन्द्रियों के माध्यम से। आनन्द भी महसूस करेंगे तो इन्द्रियों के माध्यम से। इतनी हमारी इन्द्रियाधीनता, इन्द्रियदासता बढ़ गई है। ज्ञान और आनन्द तो आत्मा का स्वभाव है। स्वभाव में 'पर' की उपेक्षा नहीं होती। न ही अतीन्द्रिय ज्ञान और अतीन्द्रिय आनन्द में पर (इन्द्रियों) की आवश्यकता है। परन्तु इन इन्द्रियों और मन (नोइन्द्रिय) ने हमारे (आत्मा के) ज्ञानानन्द के अधिकार पर अपना कब्जा कर रखा है। इन्द्रियाँ रूप-रसादि की ग्राहक होने मात्र जड़ को जानने में निमित्त होती हैं, आत्मा को जानने में साक्षात् निमित्त नहीं हैं तथा इन्द्रिय सुख तो हमारे मन की • कल्पना है। इन्द्रियों द्वारा अमुक विषय में सुख या दुःख कुछ भी नहीं होता, वह कल्पना मनं ही करता है। सुखाभास को सुख मानकर आत्मा को भटकाता है। -पिछले पृष्ठ का शेष (ख) समवायांग, समवाय १७ (ग) वही, समवाय १७ (घ) मणसंजमे, वइसंजमे, कायसंजमे, उवगरणसंजमे। -स्थानांग, स्था. ४३/४ १. (क) धर्म के दस लक्षण' से भाव ग्रहण, पृ. ८७ . (ख) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण, पृ. ६३५ . २. 'धर्म के दस लक्षण' से भाव ग्रहण, पृ. ९०
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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