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ॐ १७० 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ
क्रियाकाण्ड या बाह्य तप कर लेने मात्र से संयम नहीं आ जाता। साधु संयम से युक्त तभी होता है, जब उसके जीवन में इन्द्रियों के विषय-विकारों और कषायोंराग-द्वेषों का मुण्डन होता है। संयम का लक्षण ___ ‘पंचसंग्रह (प्रा.)' में संयम का लक्षण इस प्रकार किया गया है-“पाँच महाव्रतों का धारण करना, पाँच समितियों का पालन करना, चार कषायों क निग्रह करना, मन-वचन-काय रूप तीन दण्डों का त्याग करना और पाँच इन्द्रिये को जीतना संयम कहा गया है।" इसी प्रकार का लक्षण प्रकारान्तर से 'समवायांगसूत्र' में दिया गया है-हिंसा, असत्य, अस्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह इन पाँच आम्रवद्वारों पर नियंत्रण, क्रोधादि चार कषायों का निरुन्धन, स्पर्शन-रसन आदि पाँच इन्द्रियों के विषयों पर विजय और मन-वचन-काया के तीन योगों क शुभ प्रवर्तन, यों १७ बातों पर नियंत्रण करना संयम है। ___ 'समवायांगसूत्र' में दूसरे प्रकार से भी १७ प्रकार के संयम का उल्लेख है(१ से ९) नौ प्रकार से जीवसंयम-पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा न करना, न कराना और न अनुमोदन करना। (१०) अजीवसंयम-अजीव होने पर भी वस्त्र, पात्र आदि से किसी प्रकार का असंयम न हो, इसको सावधानी रखना। (११) प्रेक्षासंयम-सजीव स्थान में उठना, बैठना, शयनादि न करना, देखभालकर वस्तु का उपयोग करना। (१२) उपेक्षासंयमसावध कार्यों के प्रति उपेक्षा रखना, उनमें भाग न लेना, न ही अनुमोदन करना (१३) अपहृत्यसंयम-विधिपूर्वक मल, मूत्र, कचरा, गंदगी आदि परठना इसे परिष्ठापनासंयम भी कहते हैं। (१४) प्रमार्जनासंयम-मकान, वस्त्र, उपकरण, पस आदि का प्रमार्जन करना, यतनापूर्वक साफ-सफाई करना। (१५) मनःसंयम-मन में दुर्भाव न रखना, सोचते समय विचार करना। (१६) वचनसंयम-दुर्वचन न बोलना, बोलते समय सावध वचन न बोलना, खूब विचारपूर्वक बोलना, मौन रखना। (१७) कायसंयम-शरीर से होने वाली प्रवृत्ति या चेष्टाएँ यतनापूर्वक करना। 'स्थानांगसूत्र' में मन, वचन, काय और उपकरण, इन चारों पर संयम का उल्लेख है। कहीं-कहीं प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयम इन दो का ही उल्लेख है।२ १. (क) सम्यक् यमो वा संयमः।
-धवला १/३/७/३ (ख) सो संजमो जो सम्मा विणाभावी, ण अण्णो।
-वही १/१/१/४/१४४ (ग) “धर्म के दस लक्षण' से भाव ग्रहण, पृ. ८५
(घ) “जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण, पृ. ६३३-६३४ २. (क) वद-समिदि कसायाणं दंडाणं इंदियाणं पंचण्हं।
धारण-पालण-णिग्गह-चाय-जओ संजमो भणिओ॥ -पंचसंग्रह (प्रा.), गा. १२७