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________________ ॐ संवर और निर्जरा का स्रोत : श्रमणधर्म ॐ १६३ * सम्बन्ध जोड़ने का लोभ, अमुक इच्छा की पूर्ति होने का लोभ, इज्जत बरकरार रखने का लोभ, अमुक वस्तु या व्यक्ति की प्राप्ति या जीविताकांक्षा का लोभ, मन में अमुक कामना या वासना उत्पन्न होना, वस्तु का त्याग होने पर भी मन में उसे पाने की इच्छा या स्वप्न सँजोना तथा पुण्य उपार्जन करने का लोभ, नामवरी का लोभ, ये और इस प्रकार के लोभ तो धन के लोभ से कई गुना बढ़कर खतरनाक हैं। ये जीर्ण चर के समान बड़े-बड़े प्रसिद्ध मुनिराजों और आचार्यों आदि के रग-रग में घुसे हुए होते हैं। धर्म, संघ. धर्मात्माओं, धर्म-गुरुओं, वीतराग परमात्मा के प्रति राग, भले ही वह प्रशस्त हो, है तो लोभ का रूप ही। धर्म अकषायभाव-वीतरागभाव, पूर्ण समभाव में है। जब तक रागभाव या कषायभाव रहेगा, चाहे वह मन्द हो या तीव्र, शुभ हो या अशुभ, अशुभ के प्रति हो चाहे शुभ के प्रति, वह कर्मक्षयात्मक धर्म नहीं हो सकता, जब तक रागात्मक लोभ है, तब तक शुद्ध धर्म (शौच आदि धर्म) नहीं माना जाएगा। लोभ केवल रुपये-पैसे तक ही सीमित नहीं है, देवलोक में रुपये-पैसे का प्रचलन नहीं है, फिर भी वहाँ भोगोपभोग सम्बन्धी लोभ उत्कृष्ट रूप में होता है। एक बात निश्चित है कि इन लोभों के करने पर भी पुण्यरहित मनुष्य को मनोवांछित द्रव्य नहीं मिलता और न करने पर पुण्यवान् को अनायास धनादि द्रव्यों की प्राप्ति हो जाती है।२ शौच धर्म के साधक के लिए विचारणीय शौच धर्म के साधक को सोचना चाहिए कि सांसारिक पर-पदार्थों को तो अनन्त-अनन्त बार ग्रहण किया है और छोड़ा है अथवा छूट गया है, इसलिए लोभजनित महादोषों का विचार करके इस पर विजय प्राप्त करनी चाहिए। तभी संवर-निर्जरा धर्म उपार्जित हो सकता है।३ -तत्त्वार्थसार १७ १. (क) परिभोगोपभोगत्वं जीवितेन्द्रिय भेदतः। चतुर्विधम्य लोभम्य निवृत्तिः शौचमिष्यते॥ (ख) 'तत्त्वार्थ राजवार्तिक' में प्ररूपित चार प्रकार के लोभ (ग) “धर्म के दस लक्षण' से भावांश ग्रहण, पृ. ६१, ६५ (घ) कुरंग-मातंग-पतंग-भृङ्गाः मीना हताः पंचभिरेव पंच। एकः प्रमादी स कथं न हन्यते ॥ २२. लोभे कए वि अत्थो ण होइ पुग्मिग्य अपडिभोगम्य । अकए. वि हदि लोभे. अत्थो पडिभोगवंतम्स ॥ ३. सव्वे वि जगे अत्था परिगहिदा ते अणंतखुत्तो मे। अत्थेखु इत्थ को मज्झ विम्मओ गहिद वि जडेसु॥ इह य परत्तए लोए दोसे वहुए य आवहइ लोभो। इदि अप्पणो गणित्ता णिज्जेदव्वो हवदि लोभो॥ -भगवती आराधना १४३६ -वही ४३७-१४३८
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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