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________________ * १६४ * कर्मविज्ञान : भाग ६ * निष्कर्ष यह है कि कषाय-नोकषायों के मैल को ही आन्तरिक मैल समझक सभी प्रकार के लोभों का अन्त कर देना ही वास्तविक शुचिता-पवित्रता है। यह आत्मा की पवित्रता है। शरीर की पवित्रता आत्मा की पवित्रता नहीं होती औ शरीर को मल-मलकर वार-बार धोने पर भी वह गंदा हो जाता है, अंदर से गंद है, मल-मूत्र आदि से भरा हुआ है। अतः वाह्य स्नान से शुचिता नहीं आ सकती वह अन्तःस्नान से ही आ सकती है। शौच धर्म की प्राप्ति के लिए उपाय इसलिए शौच धर्म की प्राप्ति के लिये साधक को सूक्ष्म से सूक्ष्म राग के बन्धन का त्याग करना आवश्यक है। साधक गृहस्थ धर्म को छोड़कर मकान, दुकान व्यापार, धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद, पारिवारिक या सामाजिक स्नेही जनों क परित्याग कर देता है, सांसारिक भोग-सुखों का भी त्याग करता है, यदि वह श्रमण-जीवन अंगीकार करने के बाद भी पूर्व स्नेहियों, अनुयायियों या धर्मसंघ के साथी साधूवर्ग या श्रावकवर्ग के प्रति अथवा धर्म-स्थान, उपाश्रय, मन्दिर, विचरण क्षेत्र, निवास-क्षेत्र, संस्था, प्रसिद्धि, संख्यावृद्धि, प्रशंसा, पद, प्रतिष्ठा, सम्मान आदि के प्रति ममत्वबन्धन हो जाए तो वह भी लोभ है। बड़े-बड़े साधक अपनी प्रशंसा करने वाले, सेवाभक्ति करने वालों के स्नेहबन्धन से बँध जाते हैं, अमुक प्रकार के आहार-पुस्तक, ग्रन्थ आदि के प्रति आसक्ति भी बन्धन है। इन सब लोभात्मक बन्धनों में पड़ जाने के कारण आत्मा की शुचिता-पवित्रता मलिन दूषित होती जाती है। फिर ज्ञान, ध्यान, स्वाध्याय तथा महाव्रत की साधना, समिति-गुप्ति की आराधना में उसका मन नहीं लगता। कई गृहस्थ भक्त-भक्ता भी उसे ऐसे लोभात्मक बंधनों में फँसा लेते हैं, फिर वह लोकैषणा के चक्कर में पड़कर यंत्र, मंत्र, तंत्र, ज्योतिष, देवी-देव आदि के सहारे अपनी दुकानदारी फैलाकर लोगों को आकर्षित-प्रभावित करता है, कोई साधक बड़े-बड़े राजनेताओं को बुलाकर अपनी प्रसिद्धि की भूख को सन्तुष्ट करता है, कोई बाह्य चमत्कार बताकर लोगों को आकर्षित करता है। इसलिए शौच धर्म के पालन के लिये किसी भी भौतिक पदार्थ पर, किसी भी स्त्री या पुरुष पर तथा वस्त्र, पात्र, पुस्तक या किसी भी ग्राम, नगर, धर्म-स्थान आदि पर आसक्ति, लालसा या मोह के बन्धन से छूटना जरूरी है। वह छूटेगा शुद्ध आत्मा के गुणों से स्वयं को भावित करने पर, तप-संयम से आत्मा को भावित करने पर।२ १. 'शान्तिपथदर्शन' (जिनेन्द्रवर्णी) से भाव ग्रहण, पृ. ४२४ २. 'संयम कब ही मिले?' (आचार्य भद्रगुप्तविजय जी) से भाव ग्रहण, पृ. १५-१८
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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