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१६२ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ *
सामान्य पवित्रता शौच धर्म नहीं
यदि पवित्रता को ही शौच धर्म कहें तो आत्मा को अपवित्र करने वाले क्रोध, मान और मायाकषायों के पूर्णतः चले जाने पर भी लोभ का सर्वथा अन्त न हो, वहाँ तक पूर्णतः पवित्रता (शुचिता) आत्मा में प्रकट नहीं होती। आंशिक रूप से जितना कषायभाव कम होता है, उतनी पवित्रता आत्मा में प्रकट होती ही है। मगर पूर्ण पवित्रता तो लोभ के सर्वथा चले जाने पर ही समस्त कषायों-नोकषायों के पूर्णतया अन्त हो जाने पर ही होती है और उसी पूर्ण पवित्रता को लक्ष्य में रखकर ही लोभ के पूर्णतया अभाव को शौच धर्म कहा गया है। ___ यह पूर्ण शौच धर्म की बात है। अंश रूप में जिस भूमिका में जितना-जितना लोभान्तकषायों का अभाव होगा, उतना-उतना शौच धर्म प्रकट होता जाएगा। अन्य कई प्रकार के लोभ : एक चिन्तन
लोभ जो चार प्रकार का बताया गया है, उसमें भी लोभ के कई प्रकार हो । सकते हैं। 'राजवार्तिक' में लोभ के चार प्रकार बताये हैं-जीवनलोभ, इन्द्रियलोभ, आरोग्यलोभ, उपभोगलोभ। आचार्य अमृतचन्द्र ने 'तत्त्वार्थसूत्र' में इन चारों प्रकार के लोभों के त्याग को शौच धर्म कहा है। यों गहराई से देखें तो पूर्वोक्त चारों प्रकार के लोभ पंचेन्द्रिय विषयों के लोभ में समाविष्ट हो जाते हैं। उपभोग और परिभोग तो इन्द्रियों के माध्यम से ही होता है, इसलिए इन्द्रियों का विषय है ही। शारीरिकमानसिक आरोग्य भी इन्द्रिय-नोइन्द्रिय (मन) की विषम ग्रहण-शक्ति से सम्बद्ध है। क्योंकि इन्द्रिय और मन के समुदाय के अलावा और शरीर है ही क्या? जीवन का लोभ भी शरीर के साथ संयोग बने रहने की, शरीर के सुरक्षित रहने की मानसिक (नोइन्द्रिय की) आसक्ति = लालसा के सिवाय और कुछ नहीं है। विषयों के साथ जब कषाय मिल जाते हैं-राग-द्वेष जुड़ जाते हैं। वे विषयों की लोलुपता (लोभ) के कारण ही जुड़ते हैं। पंचेन्द्रियों के विषयों की लोलुपता के कारण जीवों की कितनी दुर्दशा होती है, इसका चित्रण एक आचार्य ने किया है-हिरण कर्णप्रिय शब्द के लोभ में फँसकर, हाथी स्पर्शेन्द्रिय (काम) के लोभ में फँसकर, पतंगा रूप के लोभ में फँसकर, भौंरा गन्ध के लोभ में फँसकर और मत्स्य रस (स्वाद) के लोभ में फँसकर अपने प्राण को गँवा देता है। पाँचों इन्द्रियों के विषय चेतन और अचेतन दोनों हो सकते हैं। अतः इन सभी लोभों का परित्याग करने पर ही शौच धर्म प्रकट होता है। इनके अतिरिक्त स्वर्ग का लोभ, नामना, कामना, प्रशंसा, प्रसिद्धि, कीर्ति आदि का लोभ, सम्मान का लोभ, एक-दूसरे के साथ स्नेह-सम्बन्ध, प्रेम या वात्सल्य, रागादि
१. 'धर्म के दस लक्षण' से भाव ग्रहण, पृ. ६६-६७