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ॐ संवर और निर्जरा का स्रोत : श्रमणधर्म ® १६१ ४
लोभकषायवश सब प्रकार के पाप करने में तत्पर हो जाता है शौच धर्म का विरोधी है-लोभकषाय। लोभ के अन्तर्गत आशा, तृष्णा, अभिलाषा, स्वार्थ, इच्छा, लालसा, आकांक्षा, स्पृहा, लालच, वासना, कामना, प्रसिद्धि, चाह, आकांक्षा, राग, मोह, आसक्ति, ममता, मूर्छा, शुद्धि, महत्त्वाकांक्षा आदि सब लोभ के ही परिवार के हैं। लोभकषाय से प्रेरित होकर मानव दुनियाभर के तमाम पाप करने को प्रवृत्त हो जाता है। लोभ के वशीभूत होकर व्यक्ति शरीर की अनेक चेष्टाएँ करता है, दूसरों की चापलूसी, गुलामी, अधीनता स्वीकार करने को तैयार हो जाता है। नाना प्रकार के कष्ट, दुःख, आफतों और संकटों को सहन करने के लिये तैयार हो जाता है। लोभ एवं स्वार्थ की पूर्ति के लिये वह साम्प्रदायिकता, जातीयता, राष्ट्रीयता आदि के नाम पर लोगों की हत्या करने, दंगा करने-कराने, मारपीट करने, दूसरों को ठगने, बेईमानी और ठगी करने को तत्पर हो जाता है। इतना ही नहीं, लोभ के लिये वह अपने अंगों को तोड़ने-फोड़ने तथा विष आदि से मर जाने का भी उपक्रम कर लेता है। इसीलिये लोभ को पाप का बाप कहा है।
शौच धर्म कब प्रकट होता है ? जैन-सिद्धान्त के अनुसार सूक्ष्म लोभ दसवें गुणस्थान तक रहता है। लोभकपाय का अन्त समस्त कषायों के अन्त में होता है। १६ + ९ = २५ कषायों में सबसे अन्त तक रहने वाला कषाय (संज्वलन का) लोभकषाय ही है। इसी कारण लोभकषाय का छूटना महादुष्कर है, इसलिए सबसे बड़ा शौच धर्म है। लोभ के पूर्णतः अभाव को शौच धर्म कहा है और लोभ के पूरी तरह से नष्ट होने से पहले अन्य सभी कषायों का अभाव अवश्य हो जाता है। अतः यह स्वतः सिद्ध हो गया कि लोभ से पहले के कषायों के अभाव होने मात्र से नहीं, किन्तु लोभ तक सभी कषायों के अन्त होने पर ही शौच धर्म प्रकट होता है। मुक्ति (मुत्ती) धर्म का पालन भी हो जाता है। पिछले पृष्ठ का शेष(ग) सम-संतोसजलेणं जो धोवदि तिव्व-लोहमलपुंज।
भोयणगिद्धि-विहीणो तस्स सउच्चं हवे विमलं ॥ -कार्तिकेयानुप्रेक्षा मू. ३९६ - (घ) द्रव्येसु ममेदं भावमूलो व्यसनोपनिपातः सकल इति. ततः परित्यागो लाघवं ।
. -भगवती आराधना वि. ४६/१५४/१४ (ङ) कंखाभाव-णिवित्तिं किच्चा वेग्गभावणाजुत्तो।
जो वट्टदि परमगुणी तस्स दु धम्मो हवे सौचं॥ -वारस अणुवेक्खा ७५ १. (क) मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृ. ५३ से भावांश ग्रहण
(ख) ज्ञानार्णव, सर्ग १९ (ग) धर्म के दस लक्षण' से भावांश ग्रहण, पृ. ५८-५९