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________________ .8 १५८ * कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ सिद्धों में तथा एकेन्द्रियादि में मन-वचन-काया की एकरूपता क्या है ? एक प्रश्न है-आर्जव धर्म की जो परिभाषा की गई है-मन-वचन-काया की एकरूपता। परन्तु जिनके मन-वचन-काया तीनों नहीं हैं, उन सिद्ध भगवन्तों में यह परिभाषा कैसे घटित होगी? फिर जिनके मन और वाणी नहीं है, सिर्फ काया है उन पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय आदि जीवों में भी यह परिभाषा कैसे घटित होगी? क्या उनमें मायाकषाय के न होने से आर्जव धर्म मानना पड़ेगा? सैद्धान्तिक दृष्टि से ऐसा मानना गलत होगा। क्योंकि शास्त्रों में एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के सभी जीवों में चारों कषायें मानी गई हैं, भले ही वे व्यक्तरूप से दृष्टिगोचर न हों। मन-वचन-काया की एकरूपता तो मात्र व्यवहार में समझाने के लिये है। विपरीत रूप में मन-वचन-काया की एकरूपता से आर्जव धर्म नहीं होता दूसरी बात है-मन-वचन-काया की एकरूपता विपरीत रूप में भी हो सकती है। जैसे किसी के मन में हिंसा करने का अशुभ भाव आया, उसने उसे वाणी से भी व्यक्त कर दिया और काया से भी हिंसाकृत्य कर डाला। क्या यह योगत्रय की एकरूपता उनमें आर्जव धर्म का प्रकटीकरण कहलाएगा? ऐसे खोटे कार्यों में त्रियोग की एकरूपता से आर्जव धर्म कथमपि अभीष्ट एवं शास्त्रसम्मत नहीं है। यदि ऐसी एकरूपता को आर्जव धर्म कहा जायेगा तो विकृत मन-वचन वाला अर्धविक्षिप्त व्यक्ति भी आर्जव धर्म का धनी हो जाएगा। यह भी असंभव है। इसलिए इसकी परिष्कृत परिभाषा समझनी चाहिए-मन-वचन-काया की एकरूपता जहाँ अच्छाई में हो, बुराई में कतई न हो, वहीं सम्यग्दृष्टि-सम्पन्न का आर्जव धर्म समझना चाहिए। इस एकरूपता के लिये मन को इतना पवित्र बनाए कि उसमें कुटिल खोटे भाव आएँ ही नहीं। वास्तव में, आर्जव धर्म और मायाकषाय ये दोनों आत्म-भाव हैं। आर्जव आत्मा का स्वभाव-भाव है, जबकि मायाकषाय आत्मा का विभाव-भाव है। इसलिए इन दोनों का उत्पत्ति स्थान आत्मा ही है। मन-वचन-काया के माध्यम से तो मायाचार एवं आर्जव धर्म प्रकट भर होते हैं। उत्पन्न तो आत्मा में होते हैं। वास्तव में मायाकषाय मन-वचन-काया की विरूपता, वक्रता या कुटिलता का नाम नहीं है, अपितु आत्मा की विरूपता, वक्रता या कुटिलता का नाम है। बोलने और कार्य करने में जो आर्जव धर्म विद्यमान है, वह बोलने, करने की क्रिया के कारण नहीं, उस समय आत्मा की सरलता के कारण है। १. 'धर्म के दस लक्षण' से भावांश ग्रहण, पृ. ५०-५१ २. वही, पृ. ५४
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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