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________________ संवर और निर्जरा का स्रोत : श्रमणधर्म ९५९ निश्चयदृष्टि से उत्तम निश्चयदृष्टि से-आत्मा का जैसा स्व-भाव है, उसे वैसा ही जानना-मानना और उसी में तन्मय होकर परिणत हो जाना, अर्थात् आत्मा को वर्णादि या रागादि से भिन्न जानकर उसी (शुद्ध आत्मा) में समा जाना उत्तम आर्जव है। दूसरे शब्दों में, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सम्यक् एवं एकरूप परिणमन होना आत्मा की एकरूपता है, वहीं वीतरागी सरलता है, उत्तम आर्जव है । ' वस्तुस्वरूप को अन्यथा मानना अनन्त कुटिलता है निश्चयदृष्टि से आत्मा का जैसा स्व-भाव है, वैसा न मानकर अन्यथा मानना, जानना और अन्यथा ही परिणमन करना तथा चाहना ही अनन्त वक्रता है। इसी प्रकार जो जिसका कर्त्ता-हर्त्ता-धर्त्ता नहीं है, उसे उसका कर्त्ता - हर्त्ता-धर्त्ता मानना-जानना, चाहना भी अनन्त कुटिलता है । दुःखरूप हैं - रागादि आम्रव। वे दुःखों के कारण हैं, परन्तु उन्हें सुखस्वरूप एवं सुख के कारण मानना, तदनुरूप परिणमन कर सुख चाहना भी वस्तुतः वक्रता या कुटिलता है । वस्तु का स्वरूप जैसा है, वैसा न मानकर उससे विरुद्ध मानना विरूपता है। यह सब आत्मा की कुटिलता, वक्रता, विरूपता है, अनन्तानुबन्धी मायाकषाय है । २ चार प्रकार की माया में किसमें कितनी ? मिध्यात्वी में अनन्तानुबन्धी माया का अभाव नहीं होता । आत्मानुभवी सम्यग्दृष्टि के अनन्तानुबन्धी माया का अभाव होता है, परन्तु आगे की अप्रत्याख्यानी आदि तीन प्रकार के मायाकषाय तो हैं। अणुव्रती में अप्रत्याख्यानी माया का अभाव और आगे की द्विविध माया का सद्भाव होता है, महाव्रती में प्रत्याख्यानी माया का अभाव, किन्तु संज्वलन कषाय का सद्भाव होता है। यथाख्यात चारित्री के तो संज्वलन कषाय का भी अभाव होता है । परन्तु अपनी-अपनी भूमिकानुसार जिन-जिन में, जितने अंशों में जिस-जिस माया का अभाव होता है, उतने अंशों में आर्जव धर्म होता है । चारित्रमोह के उदय के कारण 'तने अंशों में मायाकषाय का सद्भाव भी होता है । परन्तु उस-उस मायाकषाय के प्रति उसकी हेय बुद्धि होती है, उपादेय बुद्धि नहीं। अपने दोषों की सरल भाव से आलोचना करने से वह आराधक हो सकती हैं। २ 1. 'धर्म के दस लक्षण' से भाव ग्रहण, पृ. ५५ ३. वही, पृ. ५४-५५ ३. वही, पृ. ५६
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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