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________________ * संवर और निर्जरा का स्रोत : श्रमणधर्म १५७ 8 सरलता और वक्रता की चौभंगी 'स्थानांगसूत्र' में सरलता और वक्रता को एक चौभंगी द्वारा समझाया गया है--कितने ही व्यक्ति अंदर और बाहर दोनों ओर से सरल होते हैं। कई व्यक्ति अंदर से तो सरल होते हैं, किन्तु बाहर से वक्र होते हैं। कितने ही व्यक्ति अंदर से वक्र किन्तु बाहर से सरल होते हैं। कई व्यक्ति अन्दर और बाहर दोनों रूपों में वक्र होते हैं। इनमें प्रथम भंग के व्यक्ति उत्तम, दूसरे भंग वाले भी अंदर में दूसरे की हित बुद्धि से प्रेरित होकर बाहर से कठोरता दिखाते हैं, वहाँ उनकी कुटिलता या वक्रता नहीं, हितैषिता छिपी होती है। तीसरे और चौथे प्रकार के व्यक्ति क्रमशः वक्र और वक्रतम होते हैं। उनसे स्व-पर दोनों को कोई लाभ नहीं होता। उत्तम आर्जव-प्राप्ति के लिए चार बातें अनिवार्य बताई हैं -काया की ऋजुता, भाषा की ऋजुता, भावों की ऋजुता और त्रिविध योगों की अविसंवादिता (एकरूपता)। भगवान ने आर्जव (सरलता) से उपलब्धि के विषय में कहा है कि आर्जव से जीव काया की सरलता, भावों की सरलता, भाषा की सरलता और (योगों की) अविसंवादिता प्राप्त कर लेता है और अविसंवादिता-सम्पन्न जीव ही (शुद्ध) धर्म का आराधक होता है। दूसरे शब्दों में वह संवर-निर्जरारूप कर्मक्षयकारक धर्म की आराधना कर पाता है। ‘पद्मनंदि पंचविंशतिका' में कहा हैजो विचार हृदय में स्थित है, वही वचन में रहता है तथा वही बाहर फलता है, अर्थात् शरीर से भी तदनुसार कार्य किया जाता है, वह आर्जव धर्म है। इसके विपरीत दूसरों को धोखा देना अधर्म है। ये दोनों क्रमशः देवगति और नरकगति के कारण हैं। ‘कार्तिकेयानुप्रेक्षा' के अनुसार-"जो मुनि कुटिल विचार नहीं करता, कुटिल कार्य नहीं करता और कुटिल वात नहीं करता तथा अपना दोष नहीं छिपाता, वही आर्जव धर्म का धारक होता है। क्योंकि मन-वचन-काया की सरलता का नाम आर्जव धर्म है।"२ १. स्थानांगसूत्र, स्था. ४. उ. १, सू. १२ २. (क) स्थानांग. ठा. ४ (ख) अज्जवयाए णं काउजुययं भावुज्जुवयं भासुजुययं अविसंवायणं जणयइ। अविसंवायणसंपन्नयाए णं जीवे धम्मम्म आराहए भवइ। -उत्तरा., अ. २९, बोल ४८ (ग) हदि यत्तद्वाचि बहिः फलति तदेवार्जवं भवत्येतत्। धर्मो, निकृतिरधर्मो. द्वाविह सुरसा-नरकपथौ ॥ -पं. वि. १/८९ (घ) जो चिंतेइ ण वंकं, ण कुणदि वंकं, ण जंपदे वंकं । ण य गोवदि णियदोसं अज्जवधम्मो हवे तस्स। -कार्तिकेयानुप्रेक्षा ३९६
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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