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________________ *. १५६ 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ सरलभाव या मन-वचन-काय के योगों का वक्र = कुटिल न होना अथवा मायाचाररहित परिणति आर्जव है। ‘बारस अणुक्खा' के अनुसार-“कुटिलभाव या मायाचारी परिणामों को छोड़कर जो शुद्ध हृदय से चारित्र का पालन करता है, उसके नियम से आर्जव नामक धर्म होता है।" जहाँ मायाकषाय नहीं, वहीं आर्जव धर्म है आर्जव धर्म का विरोधी मायाकषाय है। मायाकषाय के कारण आत्मा में स्वभावगत ऋजुता-सरलता या सीधापन न रहकर कुटिलता, वक्रता, जटिलता, छल, झूठ-फरेब, दम्भ, कपट, दिखावा, धोखेबाजी, ठगी आदि उत्पन्न हो जाते हैं। मायाचारी सोचता कुछ और है, बोलता कुछ है और करता है कुछ और। उसका व्यवहार सहज, सरल और शुद्ध नहीं होता। उसके मन-वचन-काया में एकरूपता ही नहीं होती। मायाचार से दुर्गति एवं जन्म-मरण की वृद्धि __वर्तमान युग में सभ्यता के नाम पर भी बहुत मायाचारी और धूर्तता चलती है। आजकल ऊपर से चिकनी-चुपड़ी बातें की जाती हैं और अंदर से उसका विनाश करने, क्षति पहुँचाने या बर्बाद करने की,साजिश चलाई जाती है। मायाचारी करने वाला यह नहीं समझता है कि यह मायाचारी दूसरों के लिए दुःखजनक नहीं, अपितु अपने लिए भी घोर कर्मबन्धक और बार-बार तिर्यंचगति का कारण बनती है, इसीलिए 'आचारांगसूत्र' में कहा गया है-“माई पमाई पुणरेइ गभं।'-मायावी और प्रमादी बार-बार गर्भ में अवतरित होता है। यानी जन्म-मरण करता रहता है। ‘ज्ञानार्णव' में मायाकषाय का परिणामात्मक स्वरूप बताते हुए कहा गया है-"यह माया क्या है? इसे इस प्रकार जानिये-माया अविद्या की जन्म-भूमि है, अपकीर्ति का घर है, पापरूपी पंक का बड़ा भारी गड्ढा है, मुक्ति-द्वार की अर्गला है, नरकगृह की पगडंडी है और शीलरूपी शालवृक्ष के जंगल को जलाने वाली अग्नि है। इसे ज्ञानी पुरुषों ने निकृति (शठता या कुटिलता) कहा है। भगवान ने कहा है-सरलता होती है, वहीं आत्म-शुद्धि होती है और शुद्ध आत्मा में ही धर्म टिकता है। जीवन की पवित्रता का नाम ही सरलता है। १. (क) 'धर्म के दस लक्षण' से भाव ग्रहण, पृ. ४५ (ख) 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण, पृ. ६२८-६२९ (ग) योगस्यावक्रता आर्जवम्। __-सर्वार्थसिद्धि ९/६/४१२ (घ) मोत्तूण कुडिलभावं निम्मलहिदमेण चरति जो समणो।। अज्जव धम्मं तइयो, तस्स दु संभवदि णियमेण ।। -बा. अ.७३ २. (क) आचारांग १/३/१ (ख) ज्ञानार्णव, सर्ग १९, श्लो. ५८-५९ (ग) सोही उज्जूय भूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ। -उत्तरा., अ. ३, गा. १२
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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