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________________ • संवर और निर्जरा का स्रोत : श्रमणधर्म १५५ मार्दव धर्म-प्राप्ति के लिए देहादि के प्रति पर- बुद्धि मानकषायादि के प्रति हेय बुद्धि आवश्यक अतः मार्दव धर्म की प्राप्ति के लिये देहादि के प्रति पर-बुद्धि के साथ-साथ आत्मा में उत्पन्न होने वाली क्रोध, मानादि कषाय वृत्ति के प्रति अन्तःकरण से हेय बुद्धि एवं उदासीनता भी होनी चाहिए। जाति, कुलादि संयोगों के प्रति अहंत्व - ममत्व का त्याग होना चाहिए और यह भी सोचना चाहिए कि अनन्त - अनन्त बार ये संयोग मिले, पर इनसे आत्मा का क्या हित हुआ ? सभी संयोग क्षणभंगुर हैं, इनका वियोग अवश्य होता है । ' मानकषाय के प्रति उपादेय बुद्धि के कारण रावण आदि नरकगामी बने था मान का रावण मानकषाय के प्रति उपादेय बुद्धि के कारण ही तो नरक में गया। उसके मन में सीता जी को ससम्मान वापस करने का विचार भी आ गया था, परन्तु सवाल - मूँछ का । अतः मान को तानकर कहा- बिना युद्ध किये सीता वापस नहीं करूँगा। मनुष्यगति में अधिकांश कलह, युद्ध, झगड़े मानकषाय के प्रति उपादेय बुद्धि के कारण होते हैं। सम्यग्दृष्टि, अणुव्रती, महाव्रती साधुवर्ग में चारित्रमोह के दोष के कारण मानकषाय की आंशिक उपस्थिति होने पर उनकी मानादि कषायों के प्रति उपादेय बुद्धि नहीं होती। गोशालक, जामालि आदि साधकों में मानादि कषायों के प्रति उपादेय बुद्धि ही उनके सर्वविरतिचारित्र को ले डूबी । उनमें अपनी . अल्प-विकसित अवस्थाओं को पूर्ण विकसित मानने की अहंत्व बुद्धि आ गई। जाति आदि के अभिमान के प्रसंग पर नम्रता - मृदुता धारण करना, तुरंत ही अपने आप के विषय में सोचना कि मैं एक दिन निगोद में था, धीरे-धीरे विकास करते-करते मनुष्य जन्म प्राप्त किया है, अब प्राप्त संयोगों का अहंकार करने से तो मैं और नीच गति में चला जाऊँगा। इस प्रकार अहंकार पर ब्रेक लगाने से संवर लाभ होगा और आत्म-गुणों का दर्शन करने से निर्जरा का लाभ होगा । २ (३) उत्तम आर्जव: धर्म-स्वरूप और उपाय सरलता है सिद्धि का मार्ग आर्जव क्या है, क्या नहीं ? क्षमा और मार्दव के समान आर्जव भी आत्मा का स्वभाव है- "ऋजोर्भावः आर्जवम् ऋजु।” अर्थात् सरल का भाव ऋजुता सरलता का नाम आर्जव है। = १. 'धर्म के दस लक्षण' से भाव ग्रहण, पृ. ४३ २. (क) वही, पृ. ४१ (ख) देखें - भगवतीसूत्र में गोशालक और जामालि का वृत्तान्त
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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