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* १५४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ
शरीर के साथ एकत्व बुद्धि होने पर ही जाति, कुल, बल, रूप आदि का मद होता है। ऐश्वर्यमद और लाभमद बाह्य पदार्थों से सम्बन्धित है तथा तपमद और ज्ञानमद आत्मा की अल्प-विकसित अवस्था के आश्रय से होते हैं। मार्दव धर्म के प्रकटीकरण के लिये मन, वाणी और शरीर तीनों में मृदुता (नम्रता) होना आवश्यक है। मन मृदु होगा तो वैचारिक कठोरता नष्ट होगी। अध्यवसायों में पवित्रता आने लगेगी। अनेक संकल्प-विकल्पों और बहमों से बचाव हो सकेगा। मन कठोर होगा तो कार्यों में भी क्रूरता प्रगट होगी। मानसिक मृदुता के लिए भगवान महावीर ने सूत्र दिया"तुमंसि नाम सच्चेव, जं हंतव्वं ति मनसि।"-तू वही है, जिसे तू मन में मारने का विचार करता है आदि। मन में किसी के प्रति बुरे भाव न लाना, किसी की अवनति में प्रसन्न न होना, किसी को लूटने, पीटने, गुलाम बनाने का न सोचना। वाणी की मृदुता का अर्थ है-वाणी में स्पष्टता, कोमलता, मिष्टता। वाणी की मृदुता के लिए भगवान महावीर ने कहा-“जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ।" -जैसे पुण्यशाली को कहो, वैसे भगवान को भी कहो। वाणी की मृदुता कभी घाव नहीं पैदा करती, वह घाव पर मरहम-पट्टी का काम करती है। कायिक कठोरता तनाव, अकड़न और प्रतिक्रिया व क्रूरता पैदा करती है। कायिक मृदुता का प्रेरक सूत्र दिया-"णो अत्ताणं आसाएज्जा, णो परं आसाएज्जा।" स्वयं की आशातना (पीड़ा-अवज्ञा) न करो, न ही दूसरों की आशातना, पीड़ा करो। कठोरता कठोरता से नहीं, सरलता और मृदुता से मिलती है।' . अनन्तानुबन्धी कषाय वाले में मार्दव धर्म नहीं ।
अनन्तानुबन्धी मान का मूल कारण देहादि पर-पदार्थों, अपने वैकारिकभावों और अल्प-विकसित अवस्थाओं के प्रति एकत्व बुद्धि है। एकत्व बुद्धि मिथ्यात्व के कारण होती है और मिथ्यात्व को छुटकारा होता है-आत्मा के स्वभाव, निजी गुणों के दर्शन से।
यद्यपि कोई मिथ्यात्वी या अज्ञानी भी शास्त्र के आधार पर कह सकता है, देहादि के प्रति मेरी एकत्व बुद्धि नहीं, पर-बुद्धि है, साथ-साथ यह भी कहता जाता है कि क्रोध, मान आदि बुरे हैं, हेय हैं, इन्हें छोड़ देना चाहिए, परन्तु उसके अन्तर में क्रोध, मान आदि के प्रति उपादेय बुद्धि बनी रहती है, वह अन्तर्मन से मान, प्रतिष्ठा, सम्मान, पद आदि चाहता है, इन्हें पाने के लिए लालायित भी रहता है, इन्हें पाने हेतु अनेक प्रकार से तिकड़म भी करता है।२ ।।
१. 'शब्दों की वेदी अनुभव के दीप' (मुनि दुलहराज) से भाव ग्रहण, पृ. ८३-८४ २. 'धर्म के दस लक्षण' से भाव ग्रहण, पृ. ३९-४०