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________________ ॐ संवर और निर्जरा का स्रोत : श्रमणधर्म - १५३ 8 . पर-पदार्थों के संयोग होने मात्र से अहंकार नहीं होता जाति, कुल, वल, रूप, धन, वैभव, तप, लाभ आदि पर-पदार्थों के केवल संयोग होने मात्र से मान (अहंकार) नहीं हो जाता। जाति, कुल आदि का संयोग तो किसी सम्यग्दृष्टि श्रावक-श्राविका या साधु-साध्वी को भी होता है, हो सकता है, परन्तु यदि उनके मन-वचन-काया के योग में अहंत्व-ममत्व आ जाता है, स्वयं को उच्च या बड़ा और दूसरों को उस-उस वात को लेकर नीचा या छोटा माना जाता है, तब मानकषाय आकर धर दवोचता है। हम 'मान' का नाप पर-पदार्थों (के संयोग मात्र) से करते हैं, यह ठीक नहीं। उसका नाप अपनी (आत्मा) से होना चाहिए, क्योंकि मार्दव धर्म और मानकषाय, ये दोनों ही आत्मा की क्रमशः स्वाभाविक और वैभाविक पर्याय हैं। कभी-कभी तो इन पर-पदार्थों का संयोग नहीं भी होता, तप और श्रुतज्ञान आत्मा की स्व-पर्याय हैं, फिर भी इनको लेकर मद हो तो वह मानकषाय से जुड़ जाता है, मार्दव धर्म को खण्डित कर देता है। अतः संयोग को संयोग रूप मानने-जानने से मान नहीं होता, क्योंकि सम्यग्दृष्टिसम्यग्ज्ञानी, चक्रवर्ती अपने आप को चक्रवर्ती और सम्यग्ज्ञानी, आचार्यादि पदाधिष्ठित साधु अपने आप को आचार्य-उपाध्याय आदि जानता-मानता है, किन्तु साथ में यह भी जानता है कि “यह सब संयोग है, मैं तो इन सबसे भिन्न चिदानन्दघन चैतन्य हूँ।''१ मार्दव धर्म किस-किस भूमिका वाले में ? केलज्ञानी भी स्वयं को केवलज्ञानी मानते-जानते हैं, क्या वे भी मानी कहे जाएँगे? कदापि नहीं। क्षायोपशमिक ज्ञान वाले सम्यग्दृष्टि के यद्यपि अनन्तानुबन्धी मान चला गया है, तथापि अप्रत्याख्यानादि तीन प्रकार के मान तो विद्यमान हैं। इसी प्रकार अणुव्रती के प्रत्याख्यानी और संज्वलन सम्बद्ध मान तथा महाव्रती के संञ्चलन सम्बद्ध मान की उपस्थिति रहेगी ही। कमजोरी के कारण अपनी-अपनी भूमिकानुसार ये मान रहेंगे, परन्तु ये स्थायी नहीं हैं, उच्च भूमिका पर आरूढ़ होने के बाद ये भी छूट जाते हैं। किन्तु इन अमुक-अमुक मानों के होते हुए भी इनके साथ • एकत्व बुद्धि नहीं होती। अतः इनमें मार्दव धर्म आंशिक रूप से तो मौजूद ही है। मार्दव धर्म-प्राप्ति के लिए विविध उपाय मार्दव धर्म की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम शर्त है-देहादि पर-पदार्थों, अपने वेकारों (वैभाविकभावों) एवं अल्प-विकसित अवस्थाओं में एकत्व बुद्धि तोड़ना। १. धर्म के दस लक्षण' (डॉ. हुकमचंद भारिल्ल) से भाव ग्रहण, पृ. ३५-३६ २. वही, पृ. ४१-४२
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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