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________________ १५२ कर्मविज्ञान : भाग ६ "नो हीणे, नो अइरित्ते ।" - कोई भी व्यक्ति न तो हीन है और न ही अतिरिक्त ( उत्कृष्ट ) । हीनता - दीनता भी मार्दव नहीं है और अहंता - ममता भी मार्दव नहीं । ? परन्तु मार्दव धर्म- पालन के लिए व्यवहार में कर्कशता, कठोरता, रूक्षता या किसी की अवमानना नहीं हो, प्रत्येक व्यक्ति के साथ सहानुभूति और नम्रता होनी आवश्यक है। क्रोध और मान दोनों ही पापजनक क्रोध और मान, ये दोनों कषाय द्वेष और राग के अन्तर्गत हैं। यदि कोई निन्दा करता है तो क्रोध आता है और कोई प्रशंसा करता है तो मान । शत्रु निन्दा करता है और मित्र प्रशंसा। शत्रु राई जितने दुर्गुण को पर्वत के सदृश प्रस्तुत करता है, जबकि मित्र अवगुण को ढाँककर सामान्य गुण को भी बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करता है, वह चापलूसी करता है । निन्दा पीठ पीछे की जाती है, प्रशंसा मुँह के सामने । निन्दा की अपेक्षा प्रशंसा अधिक भयावह एवं मीठा विष है । क्रोध जिस निमित्त से आता है, व्यक्ति उस निमित्त को नष्ट करना चाहता है, जबकि मान जिस निमित्त से आता है, उसे व्यक्ति सदैव अपने पास रखना चाहता है, ताकि अहंकार का पोषण हो । अतः क्रोध वियोग को और मान, संयोग को पसंद करता है। मिथ्यादृष्टि दोनों ही प्रसंगों पर क्रोध और मान के प्रवाह में बहकर अशुभ कर्म बाँधता है, जबकि सम्यग्दृष्टि दोनों ही प्रसंगों पर सम रहता है, क्षमा और मृदुता धारण करता है। इसीलिए 'आचारांगसूत्र' में इंगित किया गया है - " तम्हा पंडिए णो हरिसे, णो कुज्झे।”– इसलिए पण्डित साधक ( प्रशंसा पाकर) हर्षित (गर्वित) न हो और न ही (निन्दा सुनकर ) क्रुद्ध हो । सम्मान और असम्मान दोनों ही परिस्थितियों में सम रहे, मृदुता रखे। व्यक्ति धन या स्वजन - परिजन आदि का सहज ही परित्याग कर सकता है, किन्तु मान, बड़ाई, ईर्ष्या, प्रतिष्ठा आदि का छोड़ना बहुत ही कठिन होता है। व्यक्ति जब ‘पर' को 'स्व' मानकर चलता है, तब मान (अहंकार) होता है, किन्तु जब वह 'पर' को 'पर' और 'स्व' को 'स्व' मान लेता है, तब अपने स्वभाव में, स्व (आत्म) गुणों में स्थित हो जाता है । 'पर' से उसकी आसक्ति, ममता, अहंता और मेरापन छूट जाता है । निष्कर्ष यह है कि मान का आधार 'पर' नहीं, 'पर' को अपना मानना है । २ १. आचारांग, श्रु. १, अ. २, उ. ३, सू. २२६ २. (क) 'जैन आचार: सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण, पृ. ६२६ (ख) आचारांग, श्रु. १, अ. २, उ. ३, सू. २२८ (ग) 'धर्म के दस लक्षण' (डॉ. हुकमचंद भारिल्ल) से भाव ग्रहण, पृ. ३०-३१
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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