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________________ 8 संवर और निर्जरा का स्रोत : श्रमणधर्म 8 १५१ : गर्व करता है। इस झूठे गर्व के कारण वह अपने आप को, अपने आत्म-गुणों का मूल्यांकन करना भूल गया है। इन झूठी कल्पनाओं के अन्धकार में अपनी (आत्मा की) वास्तविक महत्ता, विभूति को भूलकर इन पर-पदार्थों का भिखारी वन बैठा है। पर-पदार्थों के आश्रय से अपने बड़प्पन की भिक्षा माँगने में गर्व करता है। इस प्रकार का अष्टविध मद सम्यक्त्व का घातक तो माना ही गया है, परन्तु कषाय के कारण चारित्रगुण और ज्ञानगुण का भी यह घात करता है। मानकषाय से रागवश होने से अशुभ कर्म का बन्ध होता है।' जातिमद के कारण हरिकेशबल चाण्डाल कुल में उत्पन्न हुए हरिकेशवल मुनि ने पूर्व-जन्म में साधु जीवन जैसा उच्च जीवन पाकर भी समता की आराधना नहीं की और ब्राह्मण जाति का अभिमान किया, जिसके कारण अशुभ कर्म (पापकर्म) बँध गया और अगले भव में उनका चाण्डाल कुल में जन्म हुआ, जहाँ सुसंस्कार, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्बोधि आदि नहीं मिल सके। कालाकलूटा, बेडौल, कमजोर शरीर मिला। फिर भी पूर्व-जन्मकृत पुण्य के फलस्वरूप उनको एक ज्ञानी साधु का समागम मिला, ज्ञान मिला, संयम मिला। अतः इस जन्म में उन्होंने जाति आदि का अभिमान नहीं किया। उत्तम मार्दव धर्म से ओतप्रोत होकर व सिद्ध-बुद्ध सर्वकर्ममुक्त हो गए।२ मार्दव धर्म से अनुपम लाभ मार्दव धर्म का अनुपम लाभ बताते हुए भगवान ने कहा है-“मार्दव से जीव अनुद्धतभाव का प्राप्त होता है। अनुद्धतता से जीव मृदु-मार्दवभाव से सम्पन्न होकर आठ मदस्थानों को नष्ट कर देता है।३ मार्दवगुण के कारण मानव में द्रव्य से कोमलता और भाव से नम्रता आ जाती है, आत्मा में प्रसन्नतता और निजगुणलीनता आ जाती है। - मार्दव धर्म और मानकषाय : दोनों ही विरोधी मानकषाय के कारण व्यक्ति में कोमलता का अभाव हो जाता है, जिसके कारण वह सर्वत्र स्वयं को बड़ा और दूसरे को छोटा, स्वयं के जाति, कुल आदि को उच्च और दूसरे को हीन, नीच समझने लगता है। भगवान महावीर ने कहा १. 'शान्तिपथदर्शन' से भावांश ग्रहण, पृ. ४११-४१२ २. देखें-उत्तराध्ययनसूत्र का १२वाँ हरिकेशीय अध्ययन, प्राथमिक ३. मद्दवयाए अणुस्सियत्तं जणयइ। अणुस्सियत्तेण जीवे मिउ-मद्दव संपन्ने अट्ठ मयदाणाई निट्ठावेइ। -उत्तरा. २९,४९
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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