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ॐ १५० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ ®
(२) उत्तम मार्दव : क्या, क्यों और कैसे ?
धर्म की जन्म-भूमि : कोमल और मृदु मन मार्दव का स्वरूप ___ मार्दव भी क्षमा के तुल्य आत्मा का स्वभाव है। मार्दव-स्वभाव वाले आत्मा के आश्रय से आत्मा में मानकषाय के अभाव के रूप में कोमलता-मृदुलता की पर्याय प्रगट होती है, उसे मार्दव कहा जाता है। मृदुता का सीधा अर्थ कोमलता है, परन्तु मार्दव शब्द अपने में कई अर्थ समेटे हुए है-नम्रता, मदरहितता, अहंकारविहीनता, विनयभावना, अनुद्धतता मृदु-परिणाम, कोमल-परिणाम, अभिमान विरोधी परिणाम आदि। मार्दव जीवन में तभी आता है, जब जातिमद आदि आठ प्रकार का मद या मान (अहंकार) न हो। इसलिए 'बारस अणुवेक्खा' में कहा है-“जो मनस्वी पुरुष कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, श्रुत, शीलादि के विषय में जरा-सा भी गर्व (मद) नहीं करता, उसके मार्दव धर्म होता है।" शास्त्रकारों ने मानकषाय की उत्पत्ति के आठ निमित्त बताये हैं-जाति, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ और ऐश्वर्य। इन्हीं आठ मदों के कारण जीव में मान उत्पन्न होता है। इसलिए ‘भगवती आराधना' की टीका में कहा गया है-जाति आदि (अष्टविध मद के आवेश से होने वाले) अभिमान का अभाव मार्दव है। निश्चयदृष्टि से पर-पदार्थों का मैं करता हूँ, कर सकता हूँ ऐसी मान्यतारूप अहंकारभाव का उन्मूलन करना मार्दव है।' मार्दव धर्म का अधिकारी कौन ? . ___ मार्दव धर्म जिसके जीवन में नहीं होता, वह जाति, कुल आदि पर-पदार्थों का गुलाम बनकर, उनके कारण अपने आप को महान्, गुणी, स्वस्थ, प्रसन्न, सुखी मानने लगता है, परन्तु ये पर-पदार्थ उसके अपने कैसे हुए? वह (आत्मा) तो नित्य, अविनाशी और सचेतन है, जबकि पुद्गलादि या कषायादि पर-पदार्थ अनित्य, विनाशी और जड़ हैं। आज तक पर-पदार्थों को अपना मानकर कुल, जाति, बल, रूप, तप, श्रुत, धन (ऐश्वर्य) और लाभ आदि की महिमा के कारण अहंकार में छका हुआ मनुष्य, इनके कारण स्वयं को महान् मानता हुआ मानव
१. (क) कुल-रुव-जादि-बुद्धिसु तव-सुद-सीलेसु गारवं किंचि।
जो णवि कुव्वदि समणो मद्दव धस्म हवे तस्स॥ -बारस अणुवेक्खा ७२ (ख) जात्याद्यभिमानाभावोमानदोसानपेक्षश्च दृष्टकार्यानपाश्रयो मार्दवम्।
-भ. आ. वि. टीका ४६/१५४/१३ (ग) 'मोक्षशास्त्र' (गुजराती टीका), अ. ९, सू. ६ से भाव ग्रहण, पृ. ६८७