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________________ ॐ संवर और निर्जरा का स्रोत : श्रमणधर्म 8 १४९ 8 वृद्ध पिता द्वारा युवक पुत्र से क्षमायाचना इसके विपरीत अहमदाबाद के एक व्रतधारी जैन श्रावक की घटना है। उसकी अपने बेटे से १७ वर्षों से अनवन थी, वेटे से बोलना भी वन्द था। बेटा अलग रहता था। पर्युषण के दिनों में श्रावक पिता ने एक दिन एक सहकारी सोसाइटी में मुनि जिनचन्द्रविजय जी का क्षमापना पर प्रवचन सुना। उससे प्रभावित होकर विचार किया कि मैं व्रतधारी श्रावक हूँ। रोज प्रतिक्रमण में 'खामेमि सव्वे जीवे' बोलता हूँ, किन्तु मैं अपने पुत्र से अभी तक वैर-विरोध रखता हूँ, यह आराधकता का लक्षण नहीं। उपाश्रय में विराजमान गुरुदेव से मंगल पाठ सुनकर वह ७0 वर्ष का बूढ़ा श्रावक एक बजे सीधा बेटे के यहाँ पहुँचा। वह हिंचके पर झूल रहा था। पिता को आते देखकर भी उठा नहीं। पिता ने आते ही पुत्र के चरणों में पड़कर कहा-"बेटा ! मुझे क्षमा कर। मैं तुमसे क्षमा माँगने आया हूँ। क्या तू मुझे क्षमा नहीं देगा?'' यह कहते ही पुत्रं एकदम उठा और आँखों में आँसू लाकर बोला-'पिताजी, मुझ पर यह पाप मत चढ़ाइये। मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ। अपराध मेरा है। आप क्षमा दीजिए।'' दोनों में परस्पर क्षमा का आदान-प्रदान होने से मन का सारा मैल धुल गया। यह था पिता की उत्तम क्षमा का प्रभाव ! वह आराधक हो गया। . व्रतबद्ध क्षत्रिय गणाधिप चेटक की क्षमा उत्तम क्षमाधारी सम्यग्दृष्टि हो, व्रतधारी श्रावक दोनों को अपनी-अपनी भूमिका में उत्तम क्षमा का पालन करना चाहिए। किसी के साथ वैर-विरोध हो जाये, कोई उसको क्षति पहुँचाये, उसका प्रतिकार करते समय भी वह उस प्रतिद्वन्द्वी के प्रति वैरभाव, द्वेषभाव तो न रखे, इतना कम से कम अवश्य करे। चेडा महाराजा व्रतधारी श्रावक थे। उन्हें शरणागत की रक्षा के लिए अत्याचारी, अन्यायी और युद्ध करने आये अपने दौहित्र कोणिक के खिलाफ लड़ना पड़ा। न्याय-नीति की रक्षा के लिए यह युद्ध था। फिर भी उन्होंने प्रतिपक्षी के प्रति रोष, द्वेष नहीं रखा। युद्ध से पूर्व उसे अनेक प्रकार से समझाने का भी उन्होंने प्रयास किया। जब कोणिक किसी भी मूल्य पर नहीं माना, तब उन्हें युद्ध छेड़ना पड़ा। यह थी व्रतबद्ध श्रावक की क्षमा की सीमा।२ १. 'क्षमापना' (प्रवक्ता जिनचन्द्रविजय जी) से भाव ग्रहण २. देखें-भगवतीसूत्र में रथमूसलसंग्राम का वर्णन
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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