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________________ १४८ कर्मविज्ञान : भाग ६ क्षमाश्रमण ! तुम्हारी बात भी कोई प्रियजन न मानें, तुम्हारे अनुकूल न बनें तो उससे तुम्हें उनके प्रति किसी प्रकार का संताप, रोप या द्वेष नहीं होना चाहिए ? तूने कई बार पढ़ा है कि लोक में सभी सजीव-निर्जीव पदार्थ स्वतन्त्र हैं । तू भी स्वतन्त्र है, वे भी स्वतन्त्र हैं। दूसरों को उसकी इच्छा के प्रतिकूल अधीन करना तेरी सामर्थ्य से बाहर है। तेरा उन पर क्या अधिकार है ? यदि कोई सुनना चाहे तो उनके कल्याणार्थ कोई हित की बात बता दे । उसके बाद वे मानें, न मानें उनकी इच्छा है। तेरा कर्त्तव्य पूर्ण हुआ । लोक में अनन्त जीवराशि भरी पड़ी हैं, किस-किसको अपनी आज्ञा में चलायेगा ? अपने पर तेरा पूर्ण अधिकार है, अनुकूल परिणमाना है तो तू स्वयं को अपने अनुकूल परिणमा । दूसरों के प्रति तेरे क्रोधादि के परिणामों को रोक । यही उत्तम क्षमा की सुरक्षा होगी। यही अपने (आत्मा के) क्षमा-स्वभाव में प्रज्ञा को स्थित करना है। 'बृहत्कल्प' एवं 'कल्पसूत्र' में बताया है कि “यदि किसी श्रमण या श्रमणी का किसी दूसरे श्रमण या श्रावक के साथ कलह हो जाये तो जब तक परस्पर क्षमा न माँग ले, तब तक आहार- पानी लेने गृहस्थ के घरों में न जाये । शौच के लिए जाना या स्वाध्याय करना कल्पनीय नहीं है ।"२ कितनी कठोर आज्ञा है ! प्रथम क्षमापना . बाद में अन्य दैनिक कार्य ! इसी प्रकार प्रत्येक श्रमण एवं श्रमणोपासकवर्ग के लिए भी ऐसा विधान है कि अपराध या दोष चाहे छोटे का हो, परन्तु अगर किसी बात पर कटु वचन, चुभते वचन कहे, लिखे गये हैं, कलह-क्लेश हुआ है तो छोटा क्षमा माँगने आये या न आये, जो उत्तम क्षमा की आराधना करना चाहता है, उसे स्वयं चलकर छोटे के पास जाकर अन्तःकरण से क्षमायाचना कर लेनी चाहिए। वह उसकी क्षमा को स्वीकारे या न स्वीकारे, उसे आदर दे या न दे, उसकी बात सुने या न सुने, जिसने क्षमायाचना कर ली वह आराधक है, नहीं की वह विराधक है । ३ क्षमा के बिना जप, तप, क्रियाकाण्ड, त्याग - व्रत सब देहदण्ड हैं । यहाँ तक कि क्षमापना के बिना यावज्जीव अनशनपूर्वक संलेखना संथारा भी आराधना का कारण नहीं, विराधना का कारण है । अभीचिकुमार ने श्रावकव्रत ग्रहण कर लिये, अपने पिता उदयन राजर्षि के प्रति मन में जिन्दगीभर वैरभाव रखा, अन्तिम समय तक उनसे क्षमायाचना नहीं की, बल्कि उन्हें मुनि - अवस्था में भी कष्ट दिये। फलतः वह विराधक हुआ। किल्विषीदेव वना । ४ १. 'शान्तिपथदर्शन' से भाव ग्रहण, पृ. ४०८ - ४१० २. 'बृहत्कल्पसूत्र' उ. ४ ३. ‘कल्पसूत्र, चतुर्थ खण्ड' पर्युषणाकल्प में क्षमापनाकल्प, सू. २८६ ४. (क) 'जैन आचार' : सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण, पृ. ६२५ (ख) 'भगवतीसूत्र' में उदायी राजर्षि का जीवनवृत्त ·
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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