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________________ संवर और निर्जरा का स्रोत : श्रमणधर्म १४७ तू तो स्वयं अविनश्वर ज्ञान - दर्शन - आनन्द-शक्ति का पुँज है। ये तेरे घातक नहीं, तू ही इनके प्रतिं रोष, द्वेष, घृणा, वैरभाव करके अपने इन आत्म-गुणों का घात स्वयं ही कर रहा है। ये बेचारे तुझे रोष - द्वेषादि उत्पन्न नहीं कराते, न करा सकते हैं, रोष-द्वेषादि करने वाला तो तू स्वयं ही है । ये बेचारे अज्ञानी स्वयं नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं ? इन पर रोष -द्वेष कैसा ? ये बालजीव हैं, इनकी अज्ञानजनित चेष्टाओं पर रोष-द्वेष कैसा ? यदि इन्हें ऐसा कार्य करने से प्रसन्नता होती है, तो इसमें तेरी क्या हानि है ? लोग तो अत्यन्त कष्ट सहकर दूसरों की सेवा करके, परोपकारी बनकर दूसरों को स्वस्थ एवं प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं, ये तो बिना कुछ किये सहज ही इस शरीर के साथ खेल खेलकर प्रसन्न हो रहे हैं तो इससे अच्छी बात क्या है ? तेरा सर्वस्व तो क्षमा है । तुझे क्षमा की परीक्षा में उत्तीर्ण होना है। उस क्षमा का अपहरण करने में ये समर्थ नहीं, फिर भी ये प्रसन्न होते हैं तो होने दें। क्या तू इन्हें अपना शत्रु मानता है ? इस दुनियाँ में अब क्या कोई तेरा शत्रु रह गया है, जबकि तू 'मित्ती मे सव्व भूएसु, वेरं मज्झ न केणइ' का पाठ रोज दैवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमण के समय दोहराता है ? मान लो, तुम्हें कोई दुःसाध्य रोग हो जाय और कोई अपरिचित व्यक्ति तुम्हें ह्वील चेयर में बिठाकर हॉस्पिटल ले जाये और डॉक्टर से कहे कि मेरा सर्वस्व ले लीजिये, पर इन्हें स्वस्थ कर दीजिये, तो बता उस व्यक्ति से तुम्हें द्वेष होगा या उसके प्रति तुम्हें कृतज्ञता होगी ? द्वेष तो हर्गिज नहीं होगा। इसी प्रकार तू कषायों से पीड़ित एक रोगी है। यह दयालु जीव निःस्वार्थसेवी डॉक्टर के समान, अपने समस्त पुण्य लुटाकर, तुम्हें उत्पीड़ित करके कषायरूपी मवाद को ऑपरेशन करके निकालना चाहता है, तुम्हें उस समय क्षमाभावरूपी एनिस्थिया सुँघाकर, इस प्रकार यह तुम्हें कषायजनित कर्मरूपी रोग से मुक्ति दिलाने आया है, तेरा सब भार अपने सिर पर लेकर । भला, ऐसा उपकारी जीव तुम्हारे द्वेष-रोष का पात्र होगा या करुणा अथवा कृतज्ञता का ? क्षमामूर्ति - गजसुकुमाल मुनि ने सोमल ब्राह्मण के द्वारा अपने मस्तक पर धधकते अंगारे रखकर प्राणान्त कष्ट दिये जाने पर भी क्या उसे शत्रु माना था ? नहीं, उन्होंने उसे पूर्वबद्ध समस्त कर्मों से शीघ्र छुटकारा दिलाने में परम सहायक माना था। शरीर के प्रति उन्हें जरा भी मोह नहीं था । कदाचित् किसी श्रमण या तपस्वी मुनि के पास कोई लब्धि है, जिससे प्रतिकूल चलने वाले को हानि पहुँचाई जा सकती है ? परन्तु क्षमाश्रमण महर्षि ऐसा कदापि नहीं करते। हरिकेशबल मुनि को याज्ञिक ब्राह्मणों ने कितना कष्ट दिया था, कितना गालीगलौज और तिरस्कार किया था, फिर भी उन्होंने अपनी लब्धि या कषायों का प्रयोग नहीं किया, मन से भी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। इसी प्रकार है
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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