________________
ॐ १४६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ *
__यदि कोई व्यक्ति तेरे शरीर को पीटने लगे, थप्पड़-मुक्के मारने लगे या लाठी आदि से प्रहार करने लगे, तो भी तू चिन्तन कर-अरे चेतन ! तू अपनी सर्वशक्तियों को पूर्णतया गुप्त अपने ज्ञानदुर्ग में बैठा है, क्या तुझे (आत्मा को) कोई थप्पड़-मुक्के लगे हैं ? उस पर कोई प्रहार हुआ है ? क्या कहीं तेरी ज्ञानमयी आत्मा को चोट या वाधा, पीड़ा पहुँची है इनसे? आत्मा ज्ञानमय है, ज्ञान को पीड़ा, चोट होने का क्या काम? फिर तू विवेक खोकर शरीर की चोट या पीड़ा को अपनी चोट या पीड़ा क्यों समझ बैठा है ? यह शरीर जड़ है, यह तो क्रोध करता नहीं कि मुझे चोट लगी है। क्रोध उत्पन्न करने वाला तू स्वयं (आत्मा) ही है। ये बेचारे प्राणी तुझे क्रोध कैसे उत्पन्न करा सकते हैं, तू स्वयं क्रोध न करे तो? फिर यदि शरीर को कुछ बाधा पहुँची है तो तेरे ही पूर्वबद्ध कर्मोदय से पहुंची है, इस चोट से शरीर का विनाश तो नहीं हुआ। तेरे द्वारा किये हुए कर्म का फल किसी भी निमित्त से मिले, उसे शान्ति से सहकर निर्जरा (कर्मों का क्षय) कर ! तेरा संयम तो इस चोट से बाधित नहीं हुआ, तू अपने ज्ञानादि मार्ग पर चल ! इस प्रकार के मनन-चिन्तन से क्रोध पर, उसके उठने से पहले ही ब्रेक लगा देता है, वह श्रमण उत्तम क्षमा अर्जित कर लेता है।
कदाचित् कोई प्राण ही लेने को उद्यत हो जाये, बंदूक ताने सामने खड़ा हो, अन्धकूप में धकेलने को तैयार हो, गर्मागर्म तेल के कड़ाह में डालने को, कोल्हू में पीलने को, कुत्तों से नुचवाने या करवत से चीरने को उद्यत हो, उस समय उत्तम क्षमाशील श्रमणवर्ग आत्मा को इस प्रकार उद्बोधन करे-अरे आत्मन् ! क्या मृत्यु आने की सम्भावना से तू भयभीत और उद्विग्न हो गया ? मृत्यु तो एक दिन आयेगी ही, जब तक कर्म हैं, तब तक जन्म-मरण का चक्र चलता रहेगा। परन्तु जन्म-मृत्यु तो शरीर का स्वभाव है, आत्मा का स्वभाव तो अमरत्व, अविनाशी, नित्य है। फिर मृत्यु के समय बिना घबराये यदि तू परमात्म-स्मरण, आत्म-चिन्तन, भेदविज्ञान, कायोत्सर्ग आदि करता हुआ समाधिपूर्वक शान्ति से मृत्यु का वरण करता है तो तेरे पूर्वबद्ध असंख्य-असंख्य कर्मों की निर्जरा अनायास ही हो जायेगी। फिर मृत्यु तो तेरी उपकारिणी है, यदि शुभ या शुद्ध परिणाम धारावश तेरी मृत्यु होगी तो तुझे नया अच्छा शरीर, अच्छे संयोग मिलेंगे। अतः मृत्यु का डर क्या होगा? फिर शरीर की मृत्यु तेरी (आत्मा की) मृत्यु कैसे हो सकती है? यदि मृत्यु से ही डरता है तो क्षण-क्षण में पर-भावों में रमण करने से, राग-द्वेष या कषाय करने से तेरा भावमरण हो रहा है, तेरे स्व-भावों की हत्या हो रही है, आत्म-हनन से क्यों नहीं डरता? ये बेचारे शस्त्रास्त्रों से तेरे शरीर को नष्ट करने वाले तेरे घातक कैसे हो सकते हैं ?
१. 'शान्तिपथदर्शन के अध्याय ३१ ‘उत्तम क्षमा के प्रकरण' से भाव ग्रहण. पृ. ४१२-४१३