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________________ * संवर और निर्जरा का स्रोत : श्रमणधर्म ॐ १४५ ॐ उत्तम क्षमा को पूर्णता प्रदान करता है। निष्कर्ष यह है कि जिसे आत्म-गुणों के, आत्म-स्वभाव के, आत्मानन्द के, आत्म-शक्ति के एवं आत्म-शुद्धि के श्रवण-मनन-निदिध्यासन में रुचि है, जिज्ञासा है, निष्ठा है, उन्हीं आत्मानुभवी सम्यग्दृष्टि आत्मार्थी ज्ञानी व्यक्ति में उत्तम क्षमा प्रगट होती हैं। जिनमें उपर्युक्त रुचि बिलकुल नहीं, आत्मचर्चा करना-कहना-सुनना पसंद ही नहीं, वे अनन्तानुवन्धी क्रोध (आत्मा के प्रति अनन्त क्रोध) से ग्रस्त हैं। उनमें उत्तम क्षमा कैसे प्रगट हो सकती है? श्रमणवर्ग को उत्तम क्षमा के लिए कैसे उद्बोधन करना चाहिए ? श्रमण-श्रमणी की उत्तम क्षमा उच्च स्तरीय होती है। उसको कोई गाली देता है. अपशब्द कहता है, असभ्य, लुच्चा या गुंडा कहता है, उसे कोई तेजोद्वेष से प्रेरित होकर बदनाम, कलंकित और अपमानित करता है, कठोर शब्दों से उस पर आक्रोश प्रगट करता है, उसे धमकाता है, अकारण ही साम्प्रदायिक द्वेषवश उसकी निन्दा करता है, उस समय उत्तम क्षमाशील साधु अपनी अन्तरात्मा में डुबकी लगाकर आत्म-सम्बोधन करता है-अरे आत्मन ! क्या तू इन शब्दों को सुनने मात्र से घबरा गया? अपने क्षमा स्वभाव को क्यों भूल गया? तेरे अन्दर व्याकुलता, अहंत्व सर्प की फुफकार, उद्विग्नता, विह्वलता और मन में विचलता क्यों होने लगी? इन दो-चार शब्दों के सुनने मात्र से तू अपनी शान्ति को अपने हाथ से क्यों लुटा रहा है ? क्या इसी बूते पर तू कर्म शत्रुओं से युद्ध करने निकला है ? इन शब्दों ने तेरे शरीर पर तो कोई घाव नहीं किया, पीड़ा भी नहीं दी, न कोई आघात (प्रहार) किया है, तेरे तन पर। यह आत्मा तो अच्छेद्य, अभेद्य, अदाह्य, अशोष्य है, इसे घायल करने की ताकत शब्दों में कहाँ है ? तू यदि अपनी विवेक बुद्धि, अपने हित और कल्याण की मानसिकता को खण्डित-विचलित न होने दे, तो कोई भी शब्द, वचन या वाक्य तेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान में सम रहने के लिए ही तो तने सामायिक चारित्र लिया है, फिर तु कुछ शब्दों को सुनकर समभाव से विचलित होकर क्यों अपना सामायिक चारित्र भंग करने पर तुला है ? यदि सचमुच तेरे में कोई दोष है या कमी है तव तो यह झूठ न बोलकर तुम्हें सावधान कर रहा है, निष्कारण बन्धु बनकर तेग दोषारूप रोग मिटाने की भावना कर रहा है अथवा दोष नहीं है तो भविष्य में तेरे अन्दर अमुक-अमुक दोष न पैदा हो जाएँ, इस भावना को लेकर तुम्हें पानी आने से पहले पाल बाँधने को कह रहा है, यह अच्छा ही है। ऐसा समझकर स्वयं को शान्त रखना उत्तम क्षमा है श्रमणवर्ग की। १. धर्म के दस लक्षण" से भाजपा /२"
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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