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________________ ॐ संवर और निर्जरा का स्रोत : श्रमणधर्म 8 १३९ * क्षमादि दशविध धर्म कौन-कौन से ? ये दशविध उत्तम धर्म इस प्रकार हैं-(१) क्षमा, (२) मार्दव, (३) आर्जव, (४) शौच, (५) सत्य, (६) संयम, (७) तप, (८) त्याग, (९) आकिंचन्य, और (१०) ब्रह्मचर्य। कुछ नामों में किंचित् अन्तर के साथ ये ही दशविध श्रमणधर्म स्थानांगसूत्र में प्ररूपित हैं। आशय समान ही है। मादि दशविध धर्म को उत्तम क्यों कहा गया ? ये दस प्रकार के धर्म उत्तम धर्म कहलाने योग्य तभी होते हैं, जब ये आत्म-शुद्धिकारक, पापनिवारक और राग-द्वेषादि कषाय-नोकषायों से रहित हों। कतिपय आचार्यों ने दस ही धर्मों के नाम के पूर्व उत्तम विशेषण लगाने का तात्पर्य यह बताया है कि स्वरूप के भान-सहित क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भयादि कषाय-नोकषायों से रहित क्षमादि ही उत्तम क्षमादि हैं, रागादिरूप नहीं, क्योंकि उत्तम क्षमा आदि धर्मों के प्रकट होने पर क्रोधादि कषाय नहीं रहते। इस कारण क्षमा आदि धर्मों के आचरण से आस्रवों की निवृत्ति हो जाती है। अर्थात् अनायास ही संवर हो जाता है, साथ ही शुद्धात्मभाव में रमण होने से सकाम-निर्जरा भी हो जाती है। इसीलिए इन दसों ही धर्मों को द्रव्यभाव-संवर और सकाम-निर्जरा के स्रोत कहा गया है।२ क्षमादि उत्तम धर्म श्रावकवर्ग और सम्यग्दृष्टिवर्ग के लिए भी हैं यद्यपि पूर्वोक्त दस धर्मों का विधान श्रमणों के लिए आगमों में यत्र-तत्र किया गया है, किन्तु व्रती और सम्यग्दृष्टि श्रावकों (श्रमणोपासकवर्ग) को भी अपनी-अपनी भूमिकानुसार नये कर्मों का निरोध (संवर) और पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय (निर्जरा) के लिए क्षमा का पालन करना आवश्यक है। सम्यग्दृष्टि और सम्यग्ज्ञानी गृहस्थों के जीवन में भी अपनी-अपनी भूमिकानुसार इनका पालन अनायास होता ही है, करना भी चाहिए। वस्तुतः ये दशविध धर्म मिथ्यात्व और अमुक-अमुक कषायों के अभाव में ही प्रकट होते हैं, अमुक-अमुक कषायों की १. (क) उत्तमः क्षमा-मार्दवार्जव-शौच-सत्य-संयम-तपस्त्यागाऽऽकिंचन्य-ब्रह्मचर्याणि धर्मः। -तत्त्वार्थसूत्र, अ. ९, सू. ६ (ख) खंति-मद्दव-अज्जव-मुत्ती-तव-संजमे य बोधव्वं । सच्चं सोअं अकिंचणं च, बंभं च जइधम्मो॥ -समवायांग, समवायी, नवतत्त्व, शान्तसुधारस, भा. १, गा. २९ २. (क) 'मोक्षशास्त्र' (गुजराती टीका), अ. ९, सू. ६ से भाव ग्रहण, पृ. ६८८ (ख) 'शान्तिपथदर्शन' (श्री जिनेन्द्रवर्णी) से भावांश ग्रहण
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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