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________________ * १४० ® कर्मविज्ञान : भाग ६ * मन्दता से नहीं। जैसे श्रमणवर्ग के उत्तम क्षमादि धर्म होंगे तो अनन्तानुबन्धी आदि त्रिविध कषायों के अभावरूप होंगे तथा यदि ये उत्तम क्षमादि धर्म पंचम गुणस्थानवर्ती विरताविरत सम्यग्ज्ञानी श्रावकवर्ग के होंगे तो अनन्तानुबन्धी आदि दो कषायों के अभावरूप होंगे और यदि ये ही दस उत्तम धर्म चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि के प्रकट होंगे तो एकमात्र अनन्तानुबन्धी कषाय के अभावरूप होंगे। मिथ्यादृष्टि के ये उत्तम क्षमादि धर्म नहीं होते। निष्कर्ष-अविरत सम्यग्दृष्टि, व्रती श्रावक, महाव्रती साधु और वीतराग में उत्तम क्षमा का परिमाणात्मक (quantity) भेद है, गुणात्मक (quality) भेद नहीं। उत्तम क्षमा एक ही प्रकार की है, उसे जीवन में उतारने के स्तर तो दो से अधिक हो सकते हैं। .. (१) उत्तम क्षमा : क्या, क्यों और कैसे ? निन्दा, गाली, हास्य, अनादर, मारपीट, प्रहार, शरीर का घात, वैर, विरोध, विवाद, कलह आदि क्रोध, रोष, द्वेष, आवेश आदि के निमित्त उपस्थित होने पर अथवा इनके अवसर निकट भविष्य में आते देख अथवा पूर्व वैर-विरोध आदि का स्मरण करके या अकारण ही क्रोधादि के प्रसंग उपस्थित होने पर भी तथा प्रतिकार करने का सामर्थ्य होने पर भी प्रतिक्रिया न करना, भावों में मलिनता न आने देना, अपने स्व-भाव में स्थित रहना उत्तम क्षमा है। निश्चय से-क्षमा स्वभावी आत्मा के आश्रय से पर्याय में क्रोधरूप विकार की उत्पत्ति न होना ही उत्तम क्षमा है। परन्तु व्यवहार से क्रोधादि के निमित्त मिलने पर भी उत्तेजित न होना, वचन-काया से ही नहीं, मन से भी प्रतिक्रिया-प्रवृत्ति न होने देना उत्तम क्षमा है।२ क्षमा क्या है, कैसे और कब हो सकती है ? "खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंत मे। मित्ती मे सव्वभूएसु, वेर मज्झ न केणई।" -मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ, वे सब जीव मुझे क्षमा करें। मेरा सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव है, किसी के साथ भी मेरा वैर नहीं है; इस प्रकार के १. (क) 'शान्तिपथदर्शन' (श्री जिनेन्द्रवर्णी) से भावांश ग्रहण, पृ. ४०२ (ख) धर्म के दस लक्षण' (डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल) से भाव ग्रहण, पृ. १५-१६, २९ २. (क) 'मोक्षशास्त्र' (गुजराती टीका),अ. ९, सू. ६ से भाव ग्रहण, पृ. ६८७ (ख) 'धर्म के दस लक्षण' से भाव ग्रहण, पृ. २४ (ग) सत्यपि सामर्थ्येऽपकारसहनं क्षमा।
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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