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________________ 8 १३८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ शान्ति, सुव्यवस्था, समता, सन्तोष आदि स्थापित करता है। अतएव दार्शनिकों ने धर्म की परिभाषा की-“आत्म-शुद्धि का अचूक साधन धर्म है।" आध्यात्मिकों ने धर्म की परिभाषा की-“जिससे आत्मा के सुषुप्त गुण-ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति का विकास हो।" धार्मिकों और मनोवैज्ञानिकों तथा योगविज्ञों ने “समता को धर्म कहा।"१ भय, प्रलोभन, स्वार्थ और लोभ तथा आवेश के वश धर्म का पालन धर्म नहीं है। यद्यपि धर्म आचरण की वस्तु है, इसीलिए सम्यक्चारित्र को धर्म कहा गया है। क्योंकि सम्यक्चारित्र तभी जीवन में आ सकता है, जब उससे पूर्व उसमें सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान हो। तप भी तभी सम्यक् हो सकता है। सम्यग्दर्शन के बिना क्षमादि दशविध धर्म उत्तम नहीं माने जा + सकते, न ही उसका ज्ञान या चारित्र सम्यक् हो सकता है। पूर्वोक्त दृष्टि से ये सब धर्म के मनमाने रूप खण्डित हो जाते हैं, जो यह कहते हैं-"पीपल के चार चक्कर लगाना धर्म है, दीवाली पर जुआ खेलना, महिलाओं के लिए घूघट निकालना धर्म है। जिसे कुछ सदाचरण करना नहीं है, उनका कहना है-देवी-देवों के आगे बकरे की बलि देना धर्म है, भगवान को भोग लगाना धर्म है, मन्दिर में जाकर मूर्ति के आगे मत्था टेक देना धर्म है, भगवान के चढ़ावा चढ़ाकर कुछ माँग लेना धर्म है। जिसके मन में दूसरे धर्म, सम्प्रदाय के प्रति द्वेष, ईर्ष्या या घृणा की आग लग रही है, वे कहते हैं-हिन्दुओं द्वारा मुसलमानों की और मुस्लिमों द्वारा तथाकथित काफर की हत्या करना धर्म हैं, रक्तपात करना धर्म है या उनसे शास्त्रार्थ करना या वितण्डावाद करना धर्म है। जिन्हें धनिकों से द्वेष है, उनका कहना है-अमुक का धन छीन लेना धर्म है अथवा तथाकथित शूद्र को अस्पृश्य मानना धर्म है। इस प्रकार स्वार्थी लोगों ने धर्म को अन्ध-विश्वास और हिंसा, क्रूरता, साम्प्रदायिकता और अमानवीयता की परिधि में बंद करके उसके असली प्रयोजन को नजरअंदाज कर दिया। अतः ये सब परिभाषाएँ वीतरागता और सम्यग्दर्शन से रहित होने से धर्म नहीं हैं। “ये और इस प्रकार के अनेक हिंसादि समर्थक ऊटपटांग विधान धर्म के नाम पर किये गए हैं।"२ १. (क) 'अमूर्त चिन्तन' से भावांश ग्रहण, पृ. ८२ (ख) 'सत्येश्वरगीता' (स्वामी सत्यभक्त) से भाव ग्रहण (ग) 'महाभारत' (वेदव्यास) शान्तिपर्व (घ) चारित्रं खलु धम्मो। . -प्रवचनसार मू.७ २. इसके विशेष स्पष्टीकरण के लिये देखें-चतुरसेन शास्त्री द्वारा लिखित 'धर्म के नाम पर' पुस्तक
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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