SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * १२६ , कर्मविज्ञान : भाग ६ * इनसे संवर गुणों को अर्जित किया जा सकता है। 'दशवैकालिकसूत्र' के 9वें अध्ययन में सुवाक्यशुद्धि का विस्तार से निरूपण किया गया है। एषणासमिति : स्वरूप, उद्देश्य और तात्पर्य आवश्यक साधनों या उपकरणों, जो जीवन-यात्रा के लिए अनिवार्य हों, की निर्दोष गवेषणा करके उन्हें प्राप्त करने का प्रयास करना एषणासमिति है। अर्थात् . संयम-यात्रा में आवश्यक निर्दोष आहार, पानी, वस्त्रादि साधनों का ग्रहण एवं उपभोग (सेवन) करने में सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करना एषणासमिति है। .. एषणासमिति का उद्देश्य बताते हुए ‘राजवार्तिक' में कहा गया है-गुणरत्नों को वहन करने वाली शरीररूपी गाड़ी को समाधि-नगरी की ओर ले जाने के इच्छुक साधुवर्ग का जठराग्नि के दाह का शमन करने के लिए औषध की तरह अथवा गाड़ी की धुरी में औंगन देने की तरह अन्नादि आहार को स्वाद न लेते हुए ग्रहण और सेवन करना एषणासमिति है। 'मूलाचार' के अनुसार-एषणासमिति तभी शुद्ध होती है, जब साधक द्वारा उद्गम, उत्पाद, एषणा (तथा पाँच मण्डल के) इन ४२ या ४७ अशन आदि दोषों से रहित आहार, पुस्तक, उपधि या वसति आदि का शोधन किया जाता है। इसका विशेष तात्पर्यार्थ बताते हुए कहा गया है-“उद्गमादि (४७ या ४६) दोषों से रहित आहार से क्षुधानिवृत्ति करना तथा धर्मसाधनादि से युक्त, कृतकारित-अनुमोदित आदि नौ विकल्पों से विशुद्ध (रहित), ठण्डे-गर्म आदि आहार में राग-द्वेषरहित होकर समभावपूर्वक भोजन करना, इस प्रकार का आचरण करना एषणासमिति का प्रयोजन है।"२ १. (क) आवश्यकसूत्र में प्रतिक्रमण आवश्यक (ख) दशवैकालिकसूत्र, अ. '७, सुवाक्यशुद्धि २. (क) अनगाररूप गुणरत्न-संचय-संवाहि-शरीर-शकटि-समाधिपत्तनं निनीषतोऽक्ष-भ्रक्षणमिव शरीर-धारणमौषधमिव जाठराग्नि-दाहोपशम-निमित्तमशाद्यनाम्वादयो देश-कालसामर्थ्यादि-विशिष्टमगर्हितमभ्यवहरतः उद्गमोत्पादनैषणा-संयोजन-प्रमाण-कारणांगारधूम-प्रत्यय-नवकोटि-परिवर्जनमेषणासमितिरिति समाख्यायते। -राजवार्तिक ९/५/६/५९४/२१ (ख) छादाल-दोस-सुद्धं कारणजुत्तं विसुद्ध-नवकोडी। सीदादी-समभुत्ती-परिसुद्धा एसणा समिदी ॥१३॥ उग्गम-उप्पादप-एसणेहिं पिंडं च उदधिं सिज्ज च। सोधंतस्स य मुणिणो परिसुज्झइ एसणासमिदी॥३१८॥ -मूलाचार १३, ३१८
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy