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ॐ संवर और निर्जरा का द्वितीय साधन : पंच-समिति ॐ १२५ :
___ वाक्यशुद्धि कैसे-कैसे हो? 'गजवार्तिक में भाषासमिति के सन्दर्भ में वाक्यशुद्धि का चिन्तन प्रस्तुत किया गया है, जिसमें पृथ्वीकायिक आदि पटकायिक जीवों के आरम्भ (बन्ध) आदि की प्रेग्णा न हो तथा जो भाषा कटोर, निष्ठुर आदि पर-पीड़ाकारी प्रयोगों से रहित हो, जो भाषा व्रतशीलादि का उपदेश देने वाली हो, वही भाषासमिति के योग्य वाक्यशुद्धि है, जोकि सर्वथा योग्य, हित. मित, मधुर, कोमल और मनोहर वाक्यशुद्धि है। वस्तुतः वाक्यशुद्धि सभी सम्पदाओं का आश्रय है।
भापासमिति की अनन्यभाव से आराधना, साधना करता है, वह व्यक्ति भगवती आराधना' में बताए गए भाषासमिति के निम्नोक्त अतिचारों से वचता है और व्यक्त अशुभ भाषा योग से वचकर इस समिति की साधना को सार्थक और र्ण करता है।
भाषासमिति के अतिचार यह वचन कहना उचित (योग्य) है, इसका विचार न करके बोलना; यस्तु-स्वरूप का ज्ञान न होने पर भी बोलना अथवा दो व्यक्ति बात कर रहे हैं, उस समय कौन-सा प्रकरण या विषय चल रहा है ? इसका पता न होने पर भी बीच में बोलना अयोग्य है। जिस साधक ने शुद्ध धर्म का स्वरूप जाना-सुना नहीं, उसे अपुष्ट कहा गया है. ऐसे अपुष्ट साधक को यदि भाषासमिति का क्रम ज्ञात नहीं है तो मौन करें। ये और इस प्रकार के भाषासमिति के अतिचारों को जानकर वाक्यशुद्धि करे। इसके अतिरिक्त कर्कश, कठोर, निश्चयकारी, हिंसाकारी, छेदन-भेदनकारी (विघटनकारी = संघ में फूट डालने वाली), सावद्य-पापयुक्त, असत्य और मिश्र भाषा बोलना भी भाषासमिति के अतिचार हैं। साधक के लिए द्रव्य से पूर्वोक्त ८ प्रकार की भाषा न बोलना, क्षेत्र से रास्ते में चलते हुए बोलना, काल से प्रहर गत्रि बीतने के वाद उच्च स्वर से न बोलना और भाव सेउपयोगरहित न बोलना, इस सन्दर्भ में ये भी भाषासमिति की शुद्धि के अंग हैं,
१. वाक्यदिः पृथ्वीकायिकारम्भादि-प्रेग्णर्गहताः (ना) परुष-निष्ठुदि-परपीड़ाकर प्रयोग
निमत्युका व्रत-शील देशनादि-प्रधानफला हित-मित-मधुर-मनोहरा संयतग्य योग्या. तदधिष्टाना हि सर्वसम्पदः।
-गजवार्तिक ९/६/१६,५९८/१ २. इदं वचनं मम गदितुं युक्तं न वेति अनालीच्य भाषणं अज्ञात्वा वा। अतएवोक्तं 'अपुट्टा दु ण
भासज्ज भासमाणम्म अंतर' इति अपृष्टश्रुत धर्मतयामुनिः अपृष्ट इत्युच्यते। भाषामिति क्रमानभिज्ञा मौनं गृहीयात् इत्यर्थः। एवमादिको भाषासमित्यतिचारः।
__-भगवती आराधना (वि.) १६/६२/४