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* १२४ * कर्मविज्ञान : भाग ६ *
'अन्धे को अन्धा कहना' सत्य होते हुए भी पर-पीडाकारक भाषा है और सूरदास कहने में शिष्ट भाषा है। यही अन्तर भाषासमिति और असमिति का है। भाषासमिति : विभिन्न अर्थों में
अतः मूलाचार में असत्य का दोष लगे, इस प्रकार के पैशुन्य, व्यर्थ हँसी-मजाक, कर्कश-कठोर वचन, पर-निन्दा, आत्म-प्रशंसा और चार प्रकार की विकथा इत्यादि वचनों को छोड़कर स्व-पर-हितकारक वचन बोलने को भाषासमिति कहा गया है। ‘राजवार्तिक' के अनुसार-मोक्ष-पद-प्राप्त कराने के प्रधान फल वाले स्व-पर-हितकारी (हित), मित, निरर्थक-प्रलापरहित, स्पष्टार्थक, व्यक्ताक्षर वाले . एवं असंदिग्ध वचन बोलना भाषासमिति है। (भाषासमिति की शुद्धि के लिए) “मिथ्याभिधान, असूयाकारी, प्रियभेदक, अल्पसारयुक्त, शंकित, भ्रान्त, कषाययुक्त, परिहासयुक्त, अयुक्त, असभ्य, निष्ठुर, अधर्म-विधायक, देशकाल-विरोधी और चापलूसी आदि वाग्दोषों से रहित भाषण करना चाहिए। भाषासमिति की शुद्धि के लिए सुझाव
'उत्तराध्ययनसूत्र' में भाषासमिति की शुद्धि के लिए कुछ निर्देश दिये गए हैं(भाषासमिति-साधक) क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, मौखर्य और विकथाओं के प्रति सतत उपयोगयुक्त होकर रहे। प्रज्ञावान् संयमी साधु इन (पूर्वोक्त) आठ स्थानों को त्यागकर उपयुक्त समय पर निरवद्य (पाप = दोषरहित) और परिमित भाषा बोले।२ .
१. (क) पेसुण्ण-हास-कक्कस-परणिंदाऽप्पप्पसंस-विकहादो।
वज्जित्ता सपरहिदं भासासमिदी हवे कहणं ॥१२॥ सच्चं असच्च-मोसं अलियादी-दोसवज्जमणवज्ज।
वदमाणस्सणुवीची भासासमिदी हवे सुद्धा॥३०७॥ __-मूलाचार १२, ३०७ (ख) मोक्ष-पद-प्रापण-प्रधानफले हितम्। तद् द्विविधम्-म्वहितं परहितं चेति।
मित्तमनर्थक-प्रलपन-रहितम्। स्फुटार्थं व्यक्ताक्षरं चासंदिग्धम्। एवं विधमनिधानं भाषासमितिः। तत्प्रपंचः-मिथ्याभिधानासूया-प्रियसभेदलप्रसार-शंकित-सम्भ्रात-कषायपरिहासायुक्तासभ्य-निष्ठुर-धर्म विरोध्यदेशकालालक्षणाति-संम्तवादि-वाग्दोषविरहिताभिधानम्।
-राजवार्तिक ९/५/५/५९४/१९० २. कोहे माणे य मायाए लोभे य उवउत्तया।
हासे भए मोहरिए विगहासु तहेव य॥९॥ एयाई अट्ठठाणाइं परिवज्जित्तु संजए। असावज्जं मियं काले भासं भासेज्ज पन्नवं॥१०॥ -उत्तराध्ययनसूत्र २४/९-१०