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________________ संवर और निर्जरा का द्वितीय साधन : पंच-समिति ४ १२३ भाषा उत्थान की भी कारण, पतन की भी वस्तुतः भाषा ( वाणी) मनुष्य का पतन भी कर सकती है, अशुभ कर्मों के बन्धन में भी जकड़ सकती है और उत्थान भी कर सकती है, अशुभ कर्मों से निवृत्त भी कर सकती है, कर्मों के बन्धन से मुक्त भी कर सकती है। जो व्यक्ति भाषा की साधना करता है, उसे वह उत्थान के सोपान पर पहुँचा देती है । अतः भाषा को सम्यक् साधना के साथ जोड़ देने पर वह भाषासमिति बन जाती है। इसी कारण वह संवर और निर्जरा की कारण बनती है। भाषासमिति और असमिति में अन्तर वैयाकरण पाणिनि ने अपने महाभाष्य में कहा है “एकः शब्दः सुष्ठु प्रयुक्तः स्वर्गेलोके च कामधुक् भवति । ” - एक शब्द का सुन्दर ढंग से प्रयोग करने पर वह स्वर्ग और इस लोक में कामपूरक हो जाता है । ' कादम्बरी' के रचयिता वाणभट्ट मरणशय्या पर पड़े थे । उनकी यह रचना अधूरी थी, उसे पूरा करने की उन्हें चिन्ता थी । उन्होंने अपने दोनों पुत्रों को परीक्षा की दृष्टि से बुलाकर कहा - "देखो, 'सामने यह वृक्ष खड़ा है' इस पर अपनी-अपनी वाक्य रचना करके सुनाओ।" दोनों में एक पुत्र ने वाक्य रचना की - "शुष्को वृक्षस्तिष्ठत्यग्रे।" (यह सूखा वृक्ष सामने खड़ा है ) । दूसरे ने वाक्य रचना में लालित्य और सरसता लाते हुए कहा--": - "नीरस तरुरयं विलसति पुरतः । " (यह नीरस तरु सामने सुशोभित हो रहा है ) । इस वाक्य को सुनकर वाणभट्ट ने अपनी अधूरी रचना ( कादम्बरी) को पूर्ण करने की जिम्मेदारी दूसरे पुत्र को सौंपी। बात एक ही कहनी है, किन्तु एक सरस, सम्यक् भाषा में कहता है और दूसरा कर्कश और कठोर भाषा में । यहाँ भाषासमिति और असमिति का अन्तर है । एक राजा ने स्वप्न में देखा कि “मेरे सारे दाँत गिर गए हैं।" प्रातःकाल एक स्वप्न-पाठक को बुलाकर उक्त स्वप्न का फल पूछा तो उसने सीधा ही कह दिया“आपंकी मृत्यु शीघ्र ही होने वाली है।" यह अशुभ बात सुनकर राजा उस पर अत्यन्त कोपायमान हो गया और उसे जेल के सींखचों में बंद कर दिया। थोड़े ही दिन बाद एक दूसरा ज्योतिषी कहीं से घूमता - घामता आ पहुँचा। राजा ने उसकी आवभगत की और उसी स्वप्न का फल पूछा तो उस चतुर विद्वान् ने सरस शब्दों में कहा- “महाराज ! आप अपने सामने अपने जीते जी सारे परिवार को देख सकेंगे।" इस वाक्य का आशय तो वही था कि “राजा की मृत्यु शीघ्र ही होगी और अपने परिवार को देखते-देखते मर जाएगा ।" परन्तु राजा को दूसरे पण्डित की बात बहुत रुचिकर लगी । उसने उक्त पण्डित को पारितोषिक भी दिया। आशय एक होते हुए भाषा के अरुचिकर और रुचिकर प्रयोग का अन्तर है।
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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