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संवर और निर्जरा का द्वितीय साधन : पंच-समिति ४ १२७
एषणासमिति का तीन एषणाओं द्वारा परिशोधन
'उत्तराध्ययनसूत्र' में इसका विशेष स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है"एपणाशुद्धि के लिए साधक गवेपणा, ग्रहणपणा और परिभोगपणा से आहार, उपधि और शय्या इन तीनों का परिशोधन करे। यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने वाला साधक (संवत) प्रथम एपणा ( गवेषणा - गाय की तरह एपणा शुद्ध निर्दोष आहार की खोज = तलाश) करने में उद्गम और उत्पादना सम्बन्धी (१६ + १६ = ३२) दीपों का शोधन करे, दूसरी एपणा ( ग्रहणपणा ) विशुद्ध आहार आदि ग्रहण करने के सम्बन्ध में एपणा विचारणा करे, अर्थात् दोषों की शोधना करे तथा तीसरी परिभोगेपणा ( आहार के मण्डल में बैठकर आहार का उपभोग सेवन करते समय की जाने वाली एपणा) में अंगार, धूप, संयोजना, प्रमाण और कारण इन पाँच दोषों का परिशोधन करे ।' तात्पर्य यह है कि एषणासमिति में गवेषणा में आधाकर्म, औद्देशिक आदि १६ उद्गम के तथा धात्री, दूती आदि १६ उत्पादना के, यां ३२ दोषों का तथा ग्रहणैषणा में शंकित, भ्रक्षित, निक्षिप्त आदि एषणा के दस दोषों का शोधन करना एवं परिभोगैषणा में संयोजना, प्रमाण, अंगार, धूम तथा कारण, इन ५ मण्डल - दोषों (आहार सेवन करते समय लगने वाले दोषों) का शोधन करना है। ये तीनों एषणाएँ केवल आहार के विषय में ही नहीं, अपितु उपधि (धर्मोपकरण), शय्या ( उपाश्रय-संस्तारक आदि) के विषय में भी शोधन करनी हैं। अर्थात् आहार, शय्या, उपधि इन तीनों के विषय में पूर्वोक्त एषणात्रय द्वारा शोधन करना है। 'आवश्यकसूत्र' में इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है- द्रव्य से - उद्गमादि ४२ दोष वर्जित करके आहारादि ग्रहण करे, क्षेत्र से-दो कोस उपरान्त ले जाकर न भोगे, काल से पहले प्रहर का लाया हुआ अन्तिम प्रहर में न भोगे, भाव से - पाँच मांडला के दोष वर्जित करे। इस प्रकार द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से गवेपणा, ग्रहणपणा और परिभोगेपणा द्वारा अन्वेषण करके आहारादि का सेवन करने से एपणासमिति का शोधन हो जाता हैं । २
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गृह परिणाय जा । आहारोवहिन्जाए एए तिन्नि विसोहए ॥ १२ ॥
उगमुपावणं पदम बीए सहेिन्ज एसणं ।
परिभीयं मिचक विसाहेन्ज जयं नई ॥ १३ ॥
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एपणासमिति के विवेकपूर्वक पालन से संवर और निर्जरा
माधक के जीवन में उपयोगी, धर्मपालन करने में सहायक आहार, उपकरण एवं शय्या आदि वस्तुएँ कितनी मात्रा में किस विधि से कैसी. कव. किससे और
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देखें - आवश्यक सूत्र मे श्रमण प्रतिक्रमण में पाँच समिति पाठ
उत्तराध्ययनसूत्र २४/१२-१३ : विवेचन ( आ. प्र. स.. व्यावर), पृ. ४१४