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________________ १९६४ कर्मविज्ञान : भाग ६ ईर्यासमिति का लक्षण एवं विशेषार्थ ईर्यासमिति का लक्षण 'मूलाचार' में इस प्रकार किया गया है - प्रासुक ( जीवजन्तुरहित) स्थान या मार्ग से सूर्य के प्रकाश में अथवा दिन के उजेले में, साढ़े तीन (चार) हाथ प्रमाण ( युगप्रमाण) भूमि देखते हुए, अपने आवश्यक कार्य के लिए प्राणियों को पीड़ा न पहुँचाते हुए संयम ( यतना) पूर्वक गमन करना ईर्यासमिति है। किसी भी प्राणी को क्लेश न हो, इस प्रकार से यतना, सावधानी, मर्यादा और विधिपूर्वक युगपरिमाण भूमि देखते हुए चर्या करना, उठना, बैठना, भिक्षाचर्या करना, विहार करना, स्थंडिल भूमि के लिए गमनागमन करना. तथा अन्य आवश्यक कार्यों के लिए गमनागमन करना, सोना, जागना इत्यादि सभी चर्याएँ करना ईर्यासमिति के अन्तर्गत हैं । ' ' आचार्य हरिभद्र' के अनुसारईर्या-गमन (के विषय) में सत्प्रवृत्ति = एकाग्रभाव से चेष्टा करना ईर्यासमिति है । २ 'राजवार्तिक' में बताया गया है कि ईर्यासमिति के सम्यक् पालन के लिए जीवस्थान आदि के ज्ञाता तथा ज्ञानादि रत्नत्रयरूप शुद्ध धर्मपालन के लिए प्रयत्नशील साधक को सूर्योदय होने पर चक्षुरिन्द्रिय आदि से दिखने योग्य, मनुष्यादि के चरणों द्वारा क्षुण्ण एवं कुहरा, क्षुद्रजन्तु आदि से रहित मार्ग में एकाग्रचित्त होकर शनैः-शनैः चार हाथ आगे की भूमि को देखकर कदम रखते हुए पृथ्वीकायादि जीवों की विराधना न हो, इस प्रकार से गमन करना चाहिए। साथ ही ईर्यासमिति (ईर्यापथ) की शुद्धि के लिए अनेक प्रकार के जीवस्थान, योनिस्थान, जीवाश्रय आदि के विशिष्ट ज्ञानपूर्वक यतना के द्वारा जीवजन्तु को रक्षा की जाए तथा ज्ञान (मार्ग, नेत्र), सूर्य - प्रकाश और इन्द्रिय-प्रकाश से भलीभाँति देखकर गमन (चर्या) किया जाए तथा वह गमन भी शीघ्र - शीघ्र, विलम्बित, संभ्रान्त, विस्मित, लीलाविकार तथा अन्यमनस्क होकर अन्य दिशाओं की ओर देखना आदि गमन दोषों से रहित हो, तभी ईर्यापथ (ईर्यासमिति) की शुद्धि होती है । ३ १. फासूयमग्गेण दिवा जुव्वंतरप्पेहेणा सकज्जेण । जंतण परिहरदि इरियासमिदी हवे गमणं || मग्गुज्जोवुपओगावलंबण-सुद्धीहिं इरियदो मुणिणो । सुत्ताणुवीच भणिया इरियासमिदी पवयर्णामि ॥ -मूलाचार २. ईर्यायां समितिः ईर्यासमितिस्तया ईर्याविषये एकीभावेन चेष्टनम् इत्यर्थः । - आचार्य हरिभद्र ३. (क) विदित - जीवस्थानादि विधेर्मुनेर्धर्मार्थं प्रयतमानम्य सवितर्युदिते चक्षुषो विषयग्रहणसामर्थ्ये उपजाते मनुष्यादि-चरणपातोपहृताऽवश्याय-प्रायमार्गे अनन्यमानसः शनैर्न्यस्तपादस्य संकुचिताऽवयवस्ययुगमात्रपूर्व-निरीक्षणाविहितदृष्टेः पृथिव्याद्यारम्भाभावात् ईर्यासमितिरित्याख्यायते ।
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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